डा भीमराव अंबेडकर को याद करने को दिन

त्रिलोचन भट्ट

हमें यह बात संज्ञान में लेते हुए ही बात शुरू करनी चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीजों का सिरे से अभाव है। इनमें से एक है समानता। सामाजिक स्तर पर, भारत में हम एक श्रेणीबद्ध असमानता के सिद्धांतों पर आधारित समाज में रहते हैं, इनमें से कुछ के पास अकूत संपदा है दूसरी तरफ वे लोग हैं जो भीषण गरीबी में दिन गुजारते हैं। 26 जनवरी, 1950 से हम अंतर्विरोधों के एक युग में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी, सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम श्एक व्यक्ति एक मतश् और श्हर मत एक मूल्यश् के सिद्धांत को मानेंगे। लेकिन अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं के कारण हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारना जारी रखेंगे। अंतर्विरोधों भरे इस जीवन के साथ हम कब तक जियेंगे? ( डॉ भीम राव अम्बेडकर, स्पीच इन द कांस्टिट्यूएन्ट असेम्बली ऑन अडॉप्शन ऑफ द कॉन्स्टिट्यूशन, 25 नवंबर,1949)

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मेरी राय में इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब तक आप अपनी सामाजिक व्यवस्था नहीं बदलेंगे, तब तक कोई प्रगति नहीं होगी। आप समाज को रक्षा या अपराध के लिए प्रेरित कर सकते हैं। लेकिन जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई निर्माण नहीं कर सकते रू आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते, आप नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते। जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई भी निर्माण करेंगे, वह चटक जायेगा और कभी भी पूरा नहीं होगा। ( डॉ भीम राव अम्बेडकर, जाति प्रथा उन्मूलन, 1936)
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हमारे पास यह स्वतंत्रता किसलिए है? हमारे पास यह स्वतंत्रता इसलिए है कि हम अपनी सामाजिक व्यवस्था जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीज़ों से भरी है, हमारे मौलिक अधिकारों से टकराव में है को सुधार सकें। ( डॉ भीमराव अंबेडकर, कांस्टिट्यूएन्ट असेम्बली डिबेट्स, खंड 7, 2 दिसंबर, 1948, पृ. 779-83)
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अपने जीवन में डॉ. अम्बेडकर ने बहुत सारी भूमिकाएं अदा की.वे संगठक थे,प्रकाशक-सम्पादक थे,राजनीतिक नेता,सांसद,मंत्री रहे.लेकिन इन सब भूमिकाओं के मूल में एक साम्यता है कि उन्होंने जो भी काम किया,उसमें स्वयं के हित के बजाय उत्पीड़ित, दमित, दलित लोगों की आवाज को आगे बढाने के लिए किया। उन्होंने संगठन बनाये,पार्टी बनाई-बहिष्कृत हितकारिणी सभा, इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी और फिर शिड्यूल कास्ट फेडरेशन।हर बार लक्ष्य एक ही था कि हाशिये के स्वरों को मुख्यधारा का स्वर बनाया जाए। जीवन पर्यन्त भूमिकाएं बदलती रही पर लक्ष्य हमेशा एक ही रहा।

वे सिर्फ दलितों के नेता नहीं थे बल्कि समाज के हर उत्पीड़ित हिस्से की आवाज़ थे.इसीलिए बम्बई असेंबली में मजदूरों के हड़ताल के अधिकार के पक्ष में मुखर स्वर थे। उनकी पार्टी-इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के एजेंडे में ऐसे आर्थिक तंत्र को सुधारने या उलटने की बात थी,जो लोगों के किसी वर्ग के प्रति अन्यायपूर्ण हो। जमींदारों के जुल्म से बटाईदारों को बचाने की बात भी इस कार्यक्रम में थी.महिला अधिकारों वाले हिन्दू कोड बिल को पास न कराने के मसले पर तो अम्बेडकर ने मंत्री पद से ही त्याग पत्र दे दिया था। इस प्रकार, हर तरह की गैरबराबरी के खिलाफ वे थे। लेकिन निश्चित ही जातीय भेदभाव और उत्पीड़न (जिसे वे खुद भी भुगत चुके थे), भारतीय समाज में मौजूद उत्पीड़न का सर्वाधिक मारक रूप था (है), इसलिए उसकी समाप्ति के लिए वे जीवन पर्यंत लड़ते रहे।

आज के दौर के कई सबक, अम्बेडकर के लिखे में तलाशे जा सकते हैं। आज राजनीति का ऐसा स्वरूप खड़ा कर दिया गया है, जिसमें नेता, मनुष्य नहीं अराध्य है। उस पर किसी तरह का सवाल उठाना,उसके भक्तों द्वारा पाप की श्रेणी में गिना जा रहा है.अब देखिये, अम्बेडकर का इस बारे में क्या मत है। वे कहते हैं- “धर्म में भक्ति (नायक पूजा) हो सकता है कि आत्मा के मोक्ष का मार्ग हो,लेकिन राजनीति में भक्ति निश्चित ही पतन और निर्णायक तौर पर तानाशाही की ओर ले जाने वाला रास्ता है।” अम्बेडकर के लिखे,इस वाक्य में राजनीति के इस ‘भक्तिकाल’ की मंजिल देखी जा सकती है।

कानून मंत्री के रूप में संसद से हिन्दू कोड बिल पास न करवा पाने के चलते अम्बेडकर ने इस्तीफ़ा दे दिया। इस मसले पर उन्होंने कहा “……..वर्ग और वर्ग के बीच भेद, लिंग और लिंग के बीच भेद, जो हिन्दू समाज की आत्मा है, उसे अनछुआ छोड़ दिया जाए और आर्थिक समस्याओं से जुड़े कानून पास करते जाएँ तो यह हमारे संविधान का मखौल उड़ाना और गोबर के ढेर पर महल खड़ा करना है।” आज देखें तो लगता है कि वह गोबर का ढेर, महल से भी बड़ा हो गया है और फैलता ही जा रहा है।

वह देश जिसकी परिकल्पना भारत के संविधान की प्रस्तावना में है- “सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक गणराज्य”, वह भी धूरी-धूसरित होती प्रतीत हो रही है। इसलिए एक आधुनिक देश की परिकल्पना को साकार करने की चुनौती, अम्बेडकर को याद करते हुए हमारे सामने हैं।

यह रहा ’’डॉ. भीमराव अंबेडकर की जीवनी पर एक विस्तृत और प्रभावशाली लेख’’, जिसे आप स्कूल प्रोजेक्ट, प्रतियोगिता, या सामान्य अध्ययन के लिए उपयोग कर सकते हैं।

डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय इतिहास के एक ऐसे महान व्यक्तित्व थे, जिन्होंने न केवल भारत के संविधान की रचना की, बल्कि समाज में व्याप्त छुआछूत, जातिवाद और असमानता के खिलाफ आजीवन संघर्ष किया। वे एक महान समाज सुधारक, शिक्षाविद, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और मानवाधिकारों के सशक्त पक्षधर थे।

भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू नगर में एक दलित (महार जाति) परिवार में हुआ था। उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल ब्रिटिश सेना में कार्यरत थे। बचपन से ही अंबेडकर ने सामाजिक भेदभाव और जातीय अपमान का सामना किया। विद्यालय में उन्हें ‘अछूत’ मानकर पीने के पानी तक से वंचित किया जाता था।

लेकिन कठिनाइयों के बावजूद उनकी शिक्षा में रुचि बनी रही। उन्होंने मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्हें भारत सरकार की ओर से उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भेजा गया, जहाँ उन्होंने ’’कोलंबिया विश्वविद्यालय’’ से अर्थशास्त्र में पीएच.डी. की। इसके बाद उन्होंने ’’लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’’ और ’’ग्रेज़ इन लॉ’’ से कानून और अर्थशास्त्र की पढ़ाई पूरी की।

डॉ. अंबेडकर स्वतंत्र भारत की संविधान सभा में ’’मसौदा समिति के अध्यक्ष’’ बनाए गए। उन्होंने एक ऐसा संविधान तैयार किया जिसमें ’’समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय’’ को सर्वाेच्च स्थान दिया गया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि हर नागरिक को कानून के सामने समान अधिकार प्राप्त हो।

उनकी कानूनी दूरदर्शिता और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के कारण उन्हें ’’भारतीय संविधान का निर्माता’’ कहा जाता है।

डॉ. भीमराव अंबेडकर एक ऐसे युगद्रष्टा थे, जिन्होंने न केवल संविधान बनाया, बल्कि समाज को एक नई दिशा दी। वे आज भी करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि शिक्षा, आत्मसम्मान और दृढ़ संकल्प से कोई भी बाधा पार की जा सकती है।

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