नवेन्दु मठपाल
आज गणेशशंकर विद्यार्थी को याद करने का दिन है…गणेश शंकर विद्यार्थी: वो पत्रकार जो दंगे रोकने निकल पड़ा और मार डाला गया…. गणेश शंकर विद्यार्थी 26 अक्टूबर 1890 को जन्मे और 25 मार्च 1931 को मार दिए गए थे. आजादी की शुरुआती लड़ाई में हिंदू और मुसलमान दोनों ही साथ थे. पर अंग्रेजों ने भावनाओं से खेलना शुरू किया. धार्मिक भावनाएं भड़काईं. और वो सब होने लगा जो नहीं होना चाहिए था. बंगाल विभाजन के रूप में इसका पहला धमाका देखने को मिला. और ये 1920 आते-आते बहुत बढ़ गया था. दंगे होने लगे थे. देश भर में सांप्रदायिक हिंसा फैलने लगी. इस हंगामें से एक पत्रकार बेहद परेशान था. जो ये सब बर्दाश्त नहीं कर पाया. और वो पत्रकार अमन का परचम थामकर दंगीली गलियों से गुजरने लगा. ये पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी थे.
दंगे रोकते-रोकते हुई थी मौत
1931 का वक्त था. सारे कानपुर में दंगे हो रहे थे. मजहब पर लड़ने वालों के खिलाफ जिंदगी भर गणेश शंकर विद्यार्थी लड़ते रहे थे, वही मार-काट उनके आस-पास हो रही थी. लोग मजहब के नाम पर एक-दूसरे को मार रहे थे. ऐसे मौके पर गणेश शंकर विद्यार्थी से रहा न गया और वो निकल पड़े दंगे रोकने. कई जगह पर तो वो कामयाब रहे पर कुछ देर में ही वो दंगाइयों की एक टुकड़ी में फंस गए.
इसके बाद विद्यार्थी जी की बहुत खोज हुई, पर वो मिले नहीं. आखिर में उनकी लाश एक अस्पताल की लाशों के ढेर में पड़ी हुई मिली. लाश इतनी फूल गई थी कि उसको लोग पहचान भी नहीं पा रहे थे. 29 मार्च को उनको अंतिम विदाई दी गई. उनकी इस तरह हुई मौत इस बात की गवाही देती है कि गणेश शंकर विद्यार्थी जितना अपनी कलम से एक्टिव थे उतना ही वो रियल लाइफ में भी एक्टिव थे.
मानहानि के केस में 7 महीने तक जेल में रहे
गणेश शंकर विद्यार्थी वैसे तो अपनी पूरी जिंदगी में 5 बार जेल गए. पर जब वो 1922 के आखिरी बार जेल में थे तो उन्हें लिखने के लिए वहां पर एक डायरी मिली थी. इस बार उन्हें जेल हुई थी मानहानि के केस में. विद्यार्थी जी ने जनवरी, 1921 में अपने अखबार में एक रिपोर्ट छापी थी. रायबरेली के एक ताल्लुकदार सरदार वीरपाल सिंह के खिलाफ. वीरपाल ने किसानों पर गोली चलावाई थी और उसका पूरा ब्यौरा प्रताप में छापा गया था. इसलिए प्रताप के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी और छापने वाले शिवनारायण मिश्र पर मानहानि का मुकदमा हो गया. ये मुकदमा लड़ने में उनके 30 हजार रुपये खर्च हो गए.पर प्रताप इस केस से फेमस हो गया. खासकर किसानों के बीच. विद्यार्थी जी को भी सब लोग पहचानने लगे. उनको लोग प्रताप बाबा कहते थे.
इसी दौरान उन पर केस चला, गवाही हुई. गवाह के रूप में इस केस में मोतीलाल नेहरू और जवाहर लाल नेहरू भी पेश हुए थे. और सारी गवाही होने के बाद, फैसला ताल्लुकदार के फेवर में गया. दोनों लोगों पर दो-दो केस थे. और दोनों लोगों को 3-3 महीने की कैद और पांच-पांच सौ रुपये का जुर्माना हुआ.अंग्रेजों को भी प्रताप से प्रॉब्लम थी. इसलिए ये सही मौका था कि वो प्रताप को लपेटे में लेते. तो उन्होंने ले भी लिया. ए़डिटर और छापने वाले दोनों से पांच-पांच हजार का मुचलका और 10-10 हजार की जमानतें मांगीं. मुकदमे के दौरान ये उनको करना ही पड़ा, वरना गोलीकांड का पूरा खुलासा न हो पाता. पर जब फैसला हो गया. तो प्रताप जेल चले गए. छपाई वाले मिश्रजी नहीं गए क्योंकि उनको दिल की बीमारी थी. उधर रायबरेली केस की अपील भी कर दी गई थी. जो विद्यार्थी की जेल-यात्रा के दौरान ही 4 फरवरी, 1922 को खारिज भी हो गई.7 महीने से ज्यादा विद्यार्थी जेल में रहे. 16 अक्टूबर, 1921 को खुद उन्होंने इसके बाद कानपुर में गिरफ्तारी दी. 10 दिन कानपुर जेल में रहे और फिर लखनऊ भेज दिए गए. इसमें जनवरी के लास्ट से लेकर मिड मई तक की इंट्री है. 22 मई को जब जेल से निकले तो उनको डायरी के बेस पर ही उन्होंने अपनी जेल यात्रा का सारा किस्सा लिखा. जेल जीवन की झलक नाम से सीरीज छपी और बहुत हिट रही.