त्रिलोचन भट्ट
आज 26 मार्च है। चिपको आंदोलन की वर्ष गांठ। यह चिपको की प्रमुख नेता गौरा देवी का जन्म शताब्दी वर्ष भी है। चिपको भारत में एक प्रसिद्ध पर्यावरणीय आंदोलन था, जो 1973 में उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश) के चमोली जिले में शुरू हुआ। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य वनों की अंधाधुंध कटाई को रोकना और पर्यावरण की रक्षा करना था।
चिपको आंदोलन की शुरुआत 1973 में उस समय हुई जब एक विदेशी कंपनी को अलकनंदा नदी के पास के वनों की कटाई की अनुमति दी गई। ग्रामीणों ने इसका विरोध किया और पेड़ों से चिपक कर उन्हें कटने से बचाने का संकल्प लिया।
सुंदरलाल बहुगुणा इस आंदोलन के मुख्य प्रणेता थे और उन्होंने पर्यावरण बचाओ का संदेश पूरे देश में फैलाया। चमोली जिले के रैणी गांव की गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इन ग्रामीण महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों को वनों की कटाई से रोका। 1974 में जब ठेकेदार और मजदूर वनों की कटाई के लिए पहुंचे, तब गौरा देवी ने ग्रामीण महिलाओं को संगठित किया और उनका नेतृत्व किया। उन्होंने पेड़ों को बचाने के लिए साहसपूर्वक आगे आकर कहा, पेड़ हमारी मां हैं, इन्हें काटना मतलब हमारी हत्या करना है। उनका यह संघर्ष पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक बन गया।
आंदोलन की सफलता और प्रभाव
चिपको आंदोलन ने सरकार को वन संरक्षण के महत्व को समझने पर मजबूर किया। 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालयी क्षेत्रों में वनों की कटाई पर 15 वर्षों के लिए प्रतिबंध लगा दिया। यह आंदोलन न केवल भारत में, बल्कि विश्वभर में पर्यावरणीय आंदोलनों के लिए प्रेरणा स्रोत बना।
उत्तराखंड में मौजूदा पर्यावरणीय चुनौतियां
आज भी उत्तराखंड कई पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना कर रहा है। कुछ प्रमुख समस्याएं इस प्रकार हैं। इसके लिए देहरादून सहित राज्य के तमाम हिस्सों में लोग लगातार आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलनकारियों का कहना है कि आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के भीषणतम दौर से गुजर रही है। इनका असर बाकी दुनिया की तुलना में हिमालयी क्षेत्रों पर दो गुना से ज्यादा है।
वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने होंगे। लेकिन, अफसोस कि विकास के नाम पर उत्तराखंड राज्य और खासकर राज्य की राजधानी देहरादून के आसपास लगातार पेड़ काटे जा रहे हैं और जंगलों को सफाया किया जा रहा है। फिलहाल जो विकास योजनाएं प्रस्तावित हैं, उन्हें पूरा करने के लिए देहरादून में ही 52 हजार से अधिक पेड़ों की बलि लिये जाने की आशंका है।
लोगों की मांगें
पर्यावरण बचाने के गौरा देवी की राह पर चल रहे देहरादून के विभिन्न संगठनों की निम्नलिखित मांगें हैं।
1. दून वैली में किसी भी परियोजना के लिए वन भूमि के हस्तांतरण पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए।
2. कैंपा फंड्स के उपयोग में सार्वजनिक पारदर्शिता लाई जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि केवल वनीकरण उद्देश्यों के लिए ही इस फंड का उपयोग किया जाए।
3. प्रतिस्थापना वनीकरण केवल गैर-वन भूमि पर किया जाए।
4. शहर में धरोहर वृक्षों की चिन्हित किया जाए और उन्हें जियो-टैग किया जाए।
5. शहर में और अधिक हरित क्षेत्र बनाया जाए और ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव से निपटने के लिए युद्ध स्तर पर पौधरोपण किया जाए।
6. जिन पेड़ों के तनों और जड़ों का कंक्रीटीकरण किया गया है, उसे हटाया जाए। कंक्रीट-बहुत क्षेत्रों में पौधरोपण के लिए भूमि उपलब्ध करवाई जाए।
7. अनावश्यक टाइलिंग, मूर्तियों, स्थापत्य आदि के रूप में कंक्रीटीकरण में कमी लाई जाए।
8. किसी भी परियोजना की शुरुआत से पहले उचित पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) किया जाए।
9. देहरादून शहर के लिए एक स्थानीय जलवायु क्रियान्वयन योजना/ हीट एक्शन प्लान तैयार किया जाए।
10. जल संसाधनों के संबंध में विशेष जोर देते हुए दून घाटी और मसूरी की कैरिंग कैपैसिटी का आकलन किया जाए।
आंदोलनकारियों को यह भी कहना है कि जंगलों की अवैध कटाई और निर्माण कार्यों के कारण वन क्षेत्र घटता जा रहा है। उहिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज हो रही है, जिससे जल संकट उत्पन्न हो सकता है। अनियंत्रित निर्माण कार्य और जंगलों की कटाई के कारण भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएं बढ़ रही हैं। पर्यटन स्थलों पर प्लास्टिक कचरे की मात्रा बढ़ रही है, जिससे पर्यावरण को नुकसान हो रहा है। जलविद्युत परियोजनाओं और अवैज्ञानिक निर्माण कार्यों के कारण नदियों और झरनों का जल स्तर घटता जा रहा है।
गौरा देवी और चिपको आंदोलन ने यह सिद्ध कर दिया कि सामूहिक प्रयासों से पर्यावरण की रक्षा संभव है। आज की पीढ़ी को भी इसी तरह पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूक होना आवश्यक है। उत्तराखंड की समृद्ध जैव विविधता और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए हमें सतत विकास और पर्यावरणीय संतुलन को प्राथमिकता देनी होगी। गौरा देवी की प्रेरणा को जीवंत रखते हुए, हम सभी को अपने स्तर पर प्रकृति की रक्षा के लिए योगदान देना चाहिए। यह संतोषजनक है कि देहरादून और राज्य के अन्य हिस्सों में पर्यारवरण को पहुंचाये जा रहे नुकसान के लिए यहां के लोग आज भी आंदोलन कर रहे हैं।