जंगलों के सफाये में भी धामी की धमक
त्रिलोचन भट्ट
इस दौर में उत्तराखंड का आम नागरिक पेड़ों और जंगलों को बचाने के लिए आंदोलन कर रहा है और मीडिया धामी की धमक जैसे जुमले गढ़ रहा है। इन विरोधाभासों के बीच पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने कुछ ऐसे फैसले लिये हैं जो हमारे जंगलों का सफाया करने और हमारी नदियों को तहस-नहस करने वाले हैं। खास बात यह है कि यह सब सुप्रीम कोर्ट की आदेशों का उल्लंघन करके किया जा रहा है और निःसंदेह इसमें केन्द्र सरकार की भी मिलीभगत है।
सबसे पहलेअखबारों की कुछ हेड लाइंस देखिये-
– धामी सरकार ने तीन साल में 68 अहम फैसलों से बढ़ाई देशभर में धमक
– धामी के दो सरकारों के तीन साल में तेज गति से बढ़ा प्रदेश
– राजनीतिक और प्रशासनिक मोर्चे पर नये आयाम- धामी सरकार के तीन साल
– सीएम धामी चुनौतियों से निपटे, सख्त फैसले भी लिये
बिल्कुल सख्त फैसले लिये साहब। बिना ये देखे सख्त फैसले लिये कि इससे पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा है, बिना ये देखे सख्त फैसले लिये कि इससे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का कितना उल्लंघन हो रहा है और बिना ये देखे सख्त फैसले लिए कि इससे सरकारी राजस्व सेे कितना हाथ धोना पड़ रहा है? ये सख्त फैसले लगता है सिर्फ ठेकेदारों के मुनाफे को ध्यान में रखकर लिये गये हैं। अफसोस ये है कि खुद को मेन स्ट्रीम मीडिया कहने वाले जिन अखबारों ने सरकार जी की तारीफ में ऊपर पढ़ी गई हेडिंग गढ़ी हैं, उन्होंने इस तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। इस पर ध्यान दिया है एक न्यूज पोर्टल द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने। द रिपोर्टर्स कलेक्टिव की रिपोर्ट चौंकाने वाली ही नहीं चिन्ता में डालने वाली भी है। करीब 10 पेज की अंग्रेजी की इस रिपोर्ट को पढ़कर समझने में मुझे कई घंटे लग गये। रिपोर्ट का सार बहुत कम और सरल शब्दों में आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं।
रिपोर्ट का सार यह है कि उत्तराखंड की नदियों में खनन करने वालों के लिए प्रोफिट यानी लाभ की नदियां बह रही हैं हालांकि इससे राज्य की तमाम नदियां और जंगल तहस-नहस हो रहे हैं। खनन की बात आई है तो मुझे 2021 की एक घटना याद आ गई। मिस्टर हैंडसम या मिस्टर धाकड़ जब अपनी धमक बिखेरने के लिए मुख्यमंत्री बने थे तो चर्चा चली थी कि वे मुख्य रूप से खनन व्यवसायी हैं। चर्चा में कितनी सच्चाई थी, मैं नहीं जानता। लेकिन उस साल एक अजब गजब की घटना घटी, कुछ कुछ न भूतो न भविष्यति टाइप की। हुआ ये कि बागेश्वर में पुलिस ने खड़िया खनन से ओवरलोडेड तीन ट्रकों का चालान कर दिया। उस वक्त धामी जी के जन संपर्क अधिकारी थे नंदन सिंह बिष्ट। बिष्ट साहब ने अपने लेटर हेड पर बागेश्वर के एसएसपी को एक चिट्ठी लिखी और कहा कि मुख्यमंत्री के मौखिक आदेश हैं कि तीनों ट्रकों के चालान कैंसिल किये जाएं। पत्र आप स्क्रीन पर देख पा रहे होंगे।
अब सच में मौखिक आदेश थे या नहीं, कौन जाने, लेकिन ये चिट्ठी वायरल हुई तो बिष्ट साहब को विदा करना पड़ा था। इसके बाद धामी जी की खनन के संदर्भ में कहीं कोई चर्चा नहीं हुई, लेकिन अंदरखाने क्या-क्या किया गया यह द रिपोर्टर्स कलेक्टिव की रिपोर्ट बताती है।
रिपोर्ट कहती है कि धामी सरकार ने आपदाओं को रोकने के नाम पर नदियों में रेत, बजरी, बोल्डर के खनन कार्यों पर टैक्स वसूली और अवैध खनन पर निगरानी रखने जैसे महत्वपूर्ण काम प्राइवेट कंपनी को सौंप दिये हैं। समझ रहे हैं न आप। इसमें भी तुक्का ये कि जिस कंपनी को बोली के जरिये खनन से टैक्स वसूली और अवैध खनन पर निगरानी का काम दिया जाएगा, उसे नदियों में खनन का पट्टा देने में प्राथमिकता भी दी जाएगी। यानी कि एक खनन कंपनी खुद खनन भी करेगी, दूसरे खनन करने वालों से टैक्स भी एकत्र करेगी और नदियों से बोल्डर, रेत और बजरी के अवैध खनन को भी रोकेगी। मतलब ये कि यदि मैं लाइसेंस की आड़ में अवैध खनन करूंगा तो उसे रोकना भी मेरी ही जिम्मेदारी होगी। क्या दिमाग लगाया है न… साहब को धाकड़ ऐसे थोड़ी न कहते हैं। और यह होती है धमक। अखबार की हेडिंग वाली।
रिपोर्टर्स कलेक्टिव की रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखंड सरकार ने लगातार सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का उल्लंघन किया है, जिसके अनुसार, राज्य को वन क्षेेत्र वाली नदियों में खनन से मिलने वाले टैक्स को वनों के संरक्षण में लगाना चाहिए, ताकि खनन से वनों को जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई की जा सके। रिपोर्ट ये भी कहती है कि केंद्र सरकार उत्तराखंड द्वारा किए गए इस तरह के उल्लंघनों से अच्छी तरह वाकिफ है, लेकिन उसने राज्य सरकार को रोकने के लिए अपनी कानूनी शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया है, जबकि उत्तराखंड सरकार ने कई ऐसे नियम और आदेश जारी किये हैं जो अवैध खनन वालों के लिए सुरक्षा कवच बन गये हैं।
रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख है कि 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने वनों की कटाई और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाने वाली औद्योगिक परियोजनाओं, खनन आदि लिए क्षतिपूर्ति करने की व्यवस्था की थी। इसे एनपीवी यानी नेट प्रेजेंट वैल्यू कहा गया। इसे परियोजनाओं के कारण वनों को होने वाले नुकसान के लिए परियोजना चलाने वालों या वन क्षेत्र वाली नदियों में खनन करने वालों को देना होता है। इस एनवीपी को। यह नियम इसलिए बनाया गया था कि इससे खनन और परियोजना महंगे होंगे और डेवलपर्स या खननकर्ता ऐसे वन क्षेत्रों में नहीं जाएंगे। लेकिन वास्तव में एनवीपी की दरें इतनी कम रखी गई कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बेमानी हो गया। सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था यह भी थी कि वन क्षेत्र में खनन से जो रॉयल्टी मिले वह वन निगम या वन विभाग के पास जाए और वे इस राशि से क्षतिपूर्ति के काम करें, लेकिन रिपोर्टर्स कलेक्टिव की रिपोर्ट कहती है कि वन निगम और वन विभाग को रॉयल्टी का एक छोटा सा हिस्सा मिलता है और वह भी वन संरक्षण के बजाए दूसरे कामों में खर्च हो जाता है।
भारत में जो वन संरक्षण कानून है उसके तहत, वन क्षेत्रों में कोई भी हानिकारक गतिविधि की जाती है तो पहले केंद्र सरकार की स्वीकृति लेनी होती है। इसमें वन भूमि से होकर बहने वाली नदियों में खनन भी शामिल है। ये परमिट वनों की रक्षा और नुकसान को कम करने के नियम और शर्तों के साथ मिलते हैं। लेकिन हुआ ये कि धामी सरकार ने कुछ नदियों में खनन की समय सीमा बढ़ाने की मांग की तो केन्द्र ने खुशी-खुशी 5 साल की अनुमति दे डाली, बिना यह जांच किये कि पहले जो मंजूरी दी गई थी, उसकी शर्तों का पालन हुआ कि नहीं।
रिपोर्टर्स कलेक्टिव की रिपोर्ट में खनन रॉयल्टी और अन्य टैक्सों में धोखाधड़ी और घोटाला होने की बात भी कही गई है। 2019 की कैग की रिपोर्ट में ऐसे मामले दर्ज हुए थे। 2021 की ऑडिट रिपोर्ट में पाया गया कि राज्य सरकार की एजेंसियों ने ठेकेदारों को बिना ट्रांजिट पास के करीब 37.17 लाख मीट्रिक टन खनन सामग्री का उपयोग करने की अनुमति दी थी। इसका मतलब ये हुआ कि नदियों से लाखों टन बजरी, रेत और बोल्डर अवैध रूप से निकाले गए। इससे पर्यावरण को तो नुकसान हुआ ही, राज्य सरकार को राजस्व भी नहीं मिला। यह भी उल्लेख किया गया कि सरकार राज्य में संचालित नदी तल खननकर्ताओं से कम से कम 104.08 करोड़ रुपये तक का अन्य जुर्माना वसूलने में विफल रही। मतलब वसूला ही नहीं। क्यों नहीं वसूला होगा, हम तो सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं। बाकी धाकड़ जी तो पुराने खिलाड़ी ठहरे।
होना तो यह चाहिए था कि इस तरह की अनियमिताओं के बाद संबंधित अधिकारियों पर कार्रवाई होती, पर सरकार ने इसके बजाय रॉयल्टी वसूलने और अवैध खनन पर निगरानी रखने का अपना काम निजी कंपनियों को सौंप दिया है। ऐसा शायद आज तक आपने सुना नहीं होगा।
रिपोर्टर्स कलेक्टिव को एक ऐसा मामला मिला जहां रॉयल्टी संग्रह के लिए हैदराबाद की एक निजी कंपनी, पावर मेक प्रोजेक्ट्स लिमिटेड को ठेका दिया गया है। इस कंपनी को नैनीताल, हरिद्वार, उधम सिंह नगर और देहरादून जिलों में खनन सामग्री पर रॉयल्टी वसूलने का ठेका मिला था। कंपनी राज्य को 303.52 करोड़ रुपये देगी, जो उसे खनन करने वालों से रॉयल्टी के रूप में वसूलने हैं। आप सोचिये ये कंपनी सबसे पहले क्या करेगी? यही न कि सरकार को जो पैसा दिया है, उसे वसूलेगी। उसके बाद क्या करेगी, अपना मुनाफा वसूलने का प्रयास करेगी। कोई भी कंपनी किसी भी प्रोजेक्ट से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने का प्रयास करती है, ये तो हम सब अच्छी तरह जानते ही हैं। तो ऐसे में यह कंपनी पर्यावरण की चिन्ता करेगी या ये प्रयास करेगी कि ज्यादा से ज्यादा खनन हो और ज्यादा से ज्यादा रॉयल्टी वसूली जा सके, ताकि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा हो। इस कंपनी को खनन लाइसेंस में भी प्राथमिकता मिलेगी। इस तरह से यह कंपनी खनन का लाइसेेंस लेकर खनन कार्य में अपनी मनमानी की मॉनीटिंग भी खुद करेगी, और अपनी रिपोर्ट भी खुद देगी। दूसरों की रिपोर्ट तो देगी ही। रिपोर्ट यह भी कहती है कि राज्य सरकार के इन नियमों के कारण बड़ी खनन ठेकेदार कंपनियों और छोटे स्थानीय खनन व्यवसायियों के बीच टकराव की स्थिति बन गई है। छोटे कारोबारियों के लिए इस व्यवस्था से नुकसान हो रहा है।