जागर से नहीं जन संघर्ष से बचेंगे जंगल

त्रिलोचन भट्ट

हरी-भरी वादियां, कल-कल बहती नदियां और घने जंगल, उत्तराखंड की पहचान हैं। लेकिन जब भी इन प्राकृतिक धरोहरों पर संकट आया, तो यहां के लोगों ने पर्यावरण बचाने के लिए कई ऐतिहासिक आंदोलन किए। 1973 का चिपको आंदोलन हो या 1990 का नदी बचाओ आंदोलन, बीज बचाओ आंदोलन हो या वनाधिकार आंदोलन या फिर हाल के सालों में जंगलों को काटे जाने के खिलाफ हुए अन्य आंदोलन। इन सभी आंदोलनों में लोगों ने बढ़-चढकर हिस्सा लिया।

हाल के सालों विकास के नाम पर उत्तराखंड में जिस तरह से विनाश किया गया, वह सबने देखा है। हाल ही में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् पीपल बाबा ने एक वीडियो जारी करके कहा है कि सबसे ज्यादा प्रलयकारी और गैरजरूरी विकास हाल के सालों में यदि कहीं हुआ है तो वह उत्तराखंड है। चार धाम सड़क मार्ग के बाद यदि किसी जगह सबसे ज्यादा पेड़ काटे गये हैं तो वह उत्तराखंड की टेंपरेरी राजधानी देहरादून है। दिल्ली एक्सप्रेस हाईवे के लिए आशारोड़ी में हजारों पेड़ काटे गये। व्यापक विरोध के बावजूद काटे गये। सहस्रधारा रोड के चौड़ीकरण के फिर से हजारों पेड़ काटे गये। खलंगा और हाथीबड़कला में पेड़ों को बचाने में लोग सफल रहे।

लेकिन अब सरकार चाहती है कि देहरादून से ऋषिकेश के बीच सड़क इतनी चौड़ी होनी चाहिए कि लोगों का सफर 15 मिनट कम हो जाए। इसके लिए देहरादून-़ऋषिकेश रोड पर सात मोड के आसपास 4000 से ज्यादा पेड़ काटने की तैयारी की जा रही है। लेकिन देहरादून के लोग 15 मिनट बचाने के लिए 4000 पेड़ों की बलि देने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए 7 मोड़ क्षेत्र में जमा हुए हैं।
इस विरोध प्रदर्शन में दो लोकगायिकाएं, पद्श्री माधुरी बड़थ्वाल और हाल ही में कोक स्टूडियो से लोकप्रियता हासिल करने वाली कमला देवी भी शामिल हुई। दोनों ने अपने-अपने अंदाज में गीत भी गाये।

उत्तराखंड के कई लोगों को पर्यावरण के क्षेत्र में पद्मश्री पुरस्कार मिला है। लेकिन आज तक पर्यावरण के किसी भी आंदोलन में पद्श्री पुरस्कृत लोग नहीं देखे गये। इस मायने पर 7 मोड़ का प्रदर्शन कुछ अलग था। पहली बार किसी पद्मश्री पुरस्कार विजेता पर्यावरणविद् ने पर्यावरण बचाने के आंदोलन में हिस्सा लिया। पद्श्री पुरस्कार प्राप्त कल्याण सिंह मैती इस मौके पर मौजूद थे। उन्होंने विकास के नाम पर पेड़ न काटने की बात कही।

7 मोड़ के प्रदर्शन में कई अनोखी बातें नोट की गई। संचालन की जिम्मेदारी सूरज नेगी को दी गई थी। पिछले किसी भी पेड़ बचाने के आंदोलन में उन्हें नहीं देखा गया। न मोहंड में, न खलंगा में और न सहस्रधारा रोड या अन्य किसी आंदोलन में। संचालन की शुरुआत करते ही उन्होंने अपना मंतव्य भी यह कहकर साफ कर दिया कि उनकी लड़ाई सरकार से नहीं है। इस बात को लेकर लोगों ने नाराजगी भी जताई। लोगों का कहना था कि लड़ाई सरकार से नहीं है तो फिर किससे है। पर्यावरण आंदोलनों में लगातार सक्रिय रहने वाले नितिन मलेठा ने बाद में अपनी तरह से बात साफ करने की कोशिश की, लेकिन संचालक महोदय जो रायता फैला चुके थे, उसे समेट पाना संभव नहीं था।

एक और नई बात। इस बार जनगीतों को नजरअंदाज कर दिया है। और जागर आगे किये गये। जन आंदोलनों में पहली बार ऐसा हुआ कि जनगीत के बजाय जागर गाये गये। जागर दरअसल देवताओं को जागृत करने वाले गीत होते हैं और जनगीत सत्ताओं को ललकारने वाले गीत होते हैं। उत्तराखंड के किसी भी कोने में कोई जन आंदोलन हो रहा हो। इस राज्य में प्रमुख जनगीत गायकों में से एक सतीश धौलाखंडी वहां मौजूद हों और उनका जनगीत न हो ऐसा आज से पहले कभी नहीं हुआ, लेकिन आज हुआ। उन्हेें जनगीत के लिए नहीं बुलाया गया। पद्मश्री माधुरी बड़थ्वाल ने जागर गाया। कमला देवी ने भी इस कार्यक्रम में कई जागर गाये।

तमाम जन मुद्दों को लेकर सड़कों पर रहने वाले इंद्रेश मैखुरी, कमला पंत, निर्मला बिष्ट, नन्द नन्दन पांडे, बीजू नेगी, जैसे तमाम लोगों को भी न तो बोलने के लिए बुलाया गया और न ही उनका नाम लिया गया। और तो और देहरादून में पर्यावरण आंदोलन के अगुवा सिटीजन फॉर ग्रीन दून के पदाधिकारियों का भी नाम नहीं लिया गया। ऐसा लगा, जैसे इस प्रदर्शन को किसी ने हाईजैक कर लिया हो। पर्यावरण बचाने के लगभग सभी आंदोलनों में शामिल रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अनूप नौटियाल जरूर सक्रिय नजर आये। उन्होंने लोगों को पेड़ न कटने देने का संकल्प दिलाया।

उत्तराखंड के पर्यावरण आंदोलनों ने हमें सिखाया है कि जब प्रकृति पर संकट आता है, तो जनता की एकता सबसे बड़ा हथियार होती है। एक बार फिर यहां के जंगल संकट में हैं। विकास के नाम पर हजारों की संख्या में पेड़ काटने की योजना है। लिहाजा एक बार फिर उत्तराखंड के लोग सड़कों पर उतर आये हैं। लेकिन, यह बात खास ध्यान देने वाली है कि सत्ताएं उत्तराखंड के हर बड़े जन आंदोलन को डायवर्ट करने का प्रयास करती रही हैं। पर्यावरण आंदोलन में भी इस तरह की सेंध लगाये जाने की पूरी संभावना है। यदि ऐसा हुआ तो उत्तराखंड के पर्यावरण को, यहां के जंगलों को और यहां की नदियों को कोई नहीं बचा पाएगा। इसलिए ऐसे तत्वों से सावधान रहने की जरूरत होगी।

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