इस लेख का हेडिंग पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि भला दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार का उत्तराखंड की वैकल्पिक राजनीति से क्या लेना-देना? लेकिन, वास्तव में इन दोनों बातों का आपस में गहरा संबंध है। यदि उत्तराखंड में बीजेपी और कांग्रेस से हटकर वैकल्पिक राजनीति के हिमायती लोग आम आदमी पार्टी की हार का आकलन करेंगे तो संभव है इस राज्य में आने वाले सालों में एक सशक्त वैकल्पिक राजनीति का रास्ता खुल जाए। एक ऐसा रास्ता, जो रास्ते के नाम पर एक टूटी-फूटी पगडंडी न हो, बल्कि मजबूत पक्की सड़क हो। जो सिर्फ दिखावटी सुन्दर न हो, बल्कि जिसका सफर सच में आनन्द देने वाला हो। इस लेख में हम आम आदमी पार्टी की हार और उत्तराखंड की संभावित वैकल्पिक राजनीति पर कुछ गंभीर बातें करने वाले हैं। मुझे लगता है कि इस राज्य में वैकल्पिक राजनीति के हिमायती हर नागरिक को इस तरह से भी सोचने और तदनुसार कार्य करने की जरूरत है।
अन्ना का छद्म आंदोलन
आपको याद होगा, जब 2010 के बाद वाले सालों में इस देश की जनता लगातार दो टर्म के कांग्रेस शासन से ऊब चुकी थी और एक विकल्प की तलाश कर रही थी। इसी दौर में अन्ना आंदोलन हुआ था। मैं भी अन्ना तू अन्ना हुआ था। तब कोई नहीं जानता था कि अन्ना का यह आंदोलन खड़ा किसने किया है? यह बात हम सबकी समझ में बहुत देर में आई कि इस पूरे आंदोलन के पीछे आरएसएस था।
इसी आंदोलन में एक और चेहरा सामने आया और देखते ही देखते पूरे देश देश में छा गया। नाम था अरविन्द केजरीवाल। पहले अन्ना हजारे और फिर अरविन्द केजरीवाल के अनशन से हवा पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ बन चुकी थी और फायदा सीधे-सीधे बीेजेपी को होने जा रहा था। लेकिन, देश के संविधान में विश्वास रखने वाले पढ़े-लिखे लोगों का एक बड़ा वर्ग ऐसा था, जो इस माहौल में भी मानता था कि देश के लिए कांग्रेस की तुलना में बीजेपी ज्यादा खतरनाक है।
आम आदमी पार्टी का जन्म
ऐसे दौर में जन्म हुआ आम आदमी पार्टी का। बीजेपी को देश के लिए ज्यादा खतरनाक मानने वालों की मुराद पूरी हो गई। लाखों-करोड़ों लोग आम आदमी पार्टी में चले गये या उसके पक्के समर्थक बन गये। यही तो बीजेपी चाहती थी। कांग्रेस के खिलाफ पूरा माहौल बनाने के बावजूद जो लोग बीजेपी के साथ आने के लिए तैयार नहीं थे, उन्हें आम आदमी पार्टी वाला रास्ता बता दिया गया। ज्यादातर लोग खुश थे कि लंबे समय से राज कर रही भ्रष्टाचारी कांग्रेस और साम्प्रदायिक बीजेपी से छुटकारा मिल जाएगा। ंलेकिन पूरा जाल जिस तरह से बुना गया था, उसमें कई छेद थे और ये छेद सीधे-सीधे बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए थे। उत्तराखंड में टिहरी लोक सभा चुनाव और केदारनाथ विधानसभा उप चुनाव में हम इसी तरह की रणनीति देख चुके हैं।
आम आदमी पार्टी जिसने भी खड़ी की, उन्होंने एक गलती कर दी। वैसे यह गलती थी कि दूरगामी रणनीति, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। उन्हें लगा कि इस देश की जनता को एक अदद हीरो चाहिए होता है, इसलिए अरविन्द केजरीवाल का आगे कर दिया। इसी दौर में बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी को भी आगे किया था। यानी कि राष्ट्रीय राजनीति और दिल्ली की राजनीति के दो अलग-अलग हीरो यानी अधिनायक स्थापित किये गये। लेकिन इस तरह का अधिनायकवाद बहुत दिन नहीं चलता। खतरा ये रहता है कि नायक सर्वशक्तिमान बन जाता है। केजरीवाल भी दिल्ली में ऐसे ही सर्वशक्तिमान बन गये थे। बेशक उन्होंने दिल्ली में जन कल्याण के कई बेहतर कार्य भी किये भी किय। खासकर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत शानदार काम हुए, लेकिन दिल्ली की जनता ने उनके इन कामों के जगह उनके अधिकनायकवाद पर ज्यादा ध्यान दिया। नतीजा यह हुआ कि पार्टी तो हारी ही, केजरीवाल खुद अपनी सीट से भी हाथ धो बैठे।
दिल्ली की हार उत्तराखंड का सबक
केजरीवाल की यह हार क्यों उत्तराखंड के संभावित वैकल्पिक राजनीति के लिए एक जरूरी सबक है, इस पर ध्यान देने की जरूरत है। हाल के सालों में हम लगातार उत्तराखंड में वैकल्पिक राजनीति की बात करते रहे हैं। दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का विरोध करने वाले लोगों की उत्तराखंड में एक बड़ी संख्या है। लेकिन, यहां भी एक अदद नायक की तलाश चल रही है। दरअसल एक नायक खड़ा कर उसके आसपास राजनीतिक माहौल बनाना तुलनात्मक रूप से आसान होता है और सामूहिक नेतृत्व के साथ आगे बढ़ाना कठिन काम है। नायक के सहारे की जाने वाली राजनीति में दिक्कत यह है कि एक दिन उसे ढह जाना होता है। नायक के साथ कोई ऊंच-नीच हुई नहीं कि पूरा का पूरा महल ताश के पत्तों की तरह ढह जाता है।
लेकिन यदि यह महल सामूहिकता के आधार पर खड़ा किया जाये। सर्वसम्मति के आधार पर फैसले लेकर आगे बढ़ने की रणनीति अपनाई जाये तो ऐसी नौबत नहीं आती। तमाम आंधी तूफानों के बाद भी ऐसा भवन अपनी जगह खड़ा रहता है। बड़ी आपदाओं में मामूली रूप से क्षतिग्रस्त भले ही हो जाए, लेकिन ताश के पत्तों की तरह बिखरता नहीं।
उत्तराखंड में कुछ ऊर्जावान युवक अच्छा काम कर रहे हैं। लगातार संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सामूहिक नेतृत्व का अभाव है। अधिनायक बनने के उनके अघोषित लक्ष्य से आशंका होती है, कहीं वे किसी बाहरी शक्ति के द्वारा तो संचालित नहीं हो रहे हैं? समय-समय पर इस तरह की आशंकाएं कहीं न कहीं से सामने आती भी रहती हैं। दूसरी बात ये कि हममे से कई लोग इन युवकों को अधिनायक बनाने में जुटे हुए हैं। कई लोग खुद भी नायक बनने की होड़ में हैं। पत्रकार बनकर उत्तराखंड आया और अब विधायक बनकर हथियार लहराने वाला भी उत्तराखंड का अधिनायक बनने की दौड़ में है, बेशक फिलहाल चेहरा किसी और का हो।
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आगे बढ़ें… दिल्ली में आम आदमी पार्टी की अधिनायकवादी राजनीति इतने सालों इसलिए चल पड़ी के उसे बनाया ही इसीलिए गया था। उत्तराखंड में यदि अधिनायकवादी राजनीति को हवा देने का प्रयास किया जाता है और मैं तो कहूंगा कि लगातार किया जा रहा है, तो इससे वैकल्पिक धारा निकलने की कोई संभावना नहीं है। हां वैकल्पिक राजनीति का झांसा देकर आने वाले कई सालों तक ऐसे नायकों का इस्तेमाल विपक्ष को सत्ता से दूर रखने के लिए जरूर किया जा सकता है। मैं फिर से टिहरी लोकसभा और केदारनाथ विधानसभा सीट के उपचुनाव का उदाहरण देना चाहूंगा।
गांधी बनाम गोडसे
एक बात और यदि हम सोचते हैं कि किसी तरह का वाद चलाकर हम राजनीतिक रोटियां सेंक लेंगे तो यह भी एक बड़ी गलतफहमी होगी। हम देश की राजनीति के सिर्फ दो रास्ते हैं एक गांधी और दूसरा गोडसे। बीच का कोई रास्ता नहीं है। हाल में नगर निगम चुनाव में ़ऋषिकेश सीट निर्दलीय उम्मीदवार को सिर्फ इसलिए हारनी पड़ी की उनके समर्थकों ने चुनाव को पहाड़ी बनाम बाहरी बना दिया था। योग्यता के आधार पर आकलन किया जाता तो दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के उम्मीदवार निर्दलीय के सामने नहीं टिकते थे। जीता हुआ उम्मीदवार कितना योग्य है यह तो हम उसे शपथ लेते समय देख ही चुके हैं। दूसरी पार्टी का उम्मीदवार इससे कुछ ठीक था, लेकिन निर्दलीय के योग्यता के सामने नहीं ठहरता था। योग्यता को चुनाव का आधार बनाया जाता तो कम से कम ऋषिकेश सीट निर्दलीय के पास होती। लेकिन वहां बहुत खराब तरीके से पहाड़-मैदान फैलाया गया।
उत्तराखंड में वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाले कई लोग हैं, जो साम्प्रदायिकता के मामले में बीजेपी के नक्शे-कदम पर हैं। अरविन्द केजरीवाल ने भी तो यही किया था। केजरीवाल का प्रयास था कि राम को बीजेपी से छीन ले। लेकिन, बीजेपी से उसका हथियार छीनना आसान नहीं है। उत्तराखंड में वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाले यदि हिन्दुत्व के मुद्दे पर वोट लेने की सोच रहे हों तो तय मानिये कि इस मुद्दे पर आपको वोट नहीं मिलने वाला है। हिदुत्व पर विश्वास करने वाले बीजेपी को ही वोट देंगे आपको नहीं। इसलिए आप सचमुच उत्तराखंड में वैकल्पिक राजनीति के हिमायती हैं तो पहली बात बीजेपी के मुद्दे को उसके लिए ही छोड़ दें, हिंदुत्व को नहीं संविधान को हथियार बनाएं। मैदान पहाड़ का राग अलापना बंद करें। किसी एक व्यक्ति को नायक बनाने की मानसिकता से दूर रहें। सभी संघर्ष करने वाले लोग खासकर युवा वर्ग, बौद्धिक लोग, जनता की लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक संगठन एक साथ खड़े हांे और सामूहिक निर्णय के आधार पर आगे बढ़ें। इसमें विपक्षी दलों को भी शामिल करें। यदि ऐसा नहीं किया गया तो इस राज्य में वैकल्पिक राजनीति का कोई स्कोप नहीं है, ये बात गांठ बांध लीजिए। और यदि कभी कोई स्कोप बन भी गया तो वह ज्यादा टिकेगा नहीं।