क्या हिन्दू मंदिरों के बोर्डों में भी मुस्लिम सदस्य होंगे?
कुछ साल पहले उत्तराखंड सरकार ने राज्य के प्रमुख मंदिरों के संचालन के लिए देवस्थानम् बोर्ड बनाया था, जो बाद में वापस ले लिया गया। इस बोर्ड में और तमाम अन्य हिन्दू मंदिरों के बोर्ड में एक आवश्यक शर्त यह होती है कि बोर्ड के सदस्य का हिन्दू होना जरूरी है। लेकिन जो संशोधित वक्फ बिल बनाया गया है, उसमें दो सदस्य हिन्दू होने की अनिवार्यता तय की गई है। वक्फ बोर्ड में हिन्दू सदस्य बनाये जाने का स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन, सवाल ये है कि क्या हिन्दू मंदिरों के बोर्डों में भी मुस्लिमों को सदस्य बनाने का प्रावधान किया जाएगा? यदि ऐसा नहीं है तो फिर वक्फ बिल में इस शर्त के मायने क्या हैं। संशोधित वक्फ बिल का विश्लेषण करती गांधीवादी कार्यकर्ता फ़रीद आलम की रिपोर्ट पढ़िए।
वक़्फ़ वस्तुतः तीन तरह का होता है । एक होता है पब्लिक वक़्फ़, इसके अंतर्गत सड़क बनवाना , कुआं खुदवाना , किसी प्रकार के भेदभाव रहित जनकल्याण के उद्देश्य से नियोजित कोई कार्य पब्लिक वक़्फ़ या वक़्फ़ अललख़ैर कहलाता है । अर्ध पब्लिक वक़्फ़ जिसमें समुदाय विशेष के धार्मिक विश्वास के परिपूर्ति के साथ जनकल्याण की भावना से प्रेरित कार्य भी होता है यह भी वक़्फ़ अललख़ैर की श्रेणी में आता है और तीसरा है प्राइवेट वक़्फ़ जो मुख्यतः वक़्फ़ सृजक (वाक़िफ़) के परिवार द्वारा या नसलन बाद नसलन उसके परिवार के लाभ के लिए परिवार के किसी सदस्य या समिति द्वारा संचालित होता है । इसे वक़्फ़ अलल औलाद कहते हैं । वक़्फ़ बोर्ड में वक़्फ़ सम्पत्ति का रजिस्ट्रेशन दो आधार पर होता है । सम्पत्ति या स्थान का लम्बे समय से धार्मिक प्रयोजन में प्रयोग के द्वारा या वक़्फ़नामे के आधार पर ।
जैसे ही किसी सम्पत्ति का आधिपत्य भोगी अपनी कुल या आंशिक सम्पत्ति का वक़्फ़नामा मुरत्तब करता है उसका उतनी सम्पत्ति पर से सारे अधिकार समाप्त हो जाते हैं और वह उस सम्पत्ति का संचालक मात्र रह जाता है और सम्पादित वक़्फ़नामा में वर्णित जायदाद अल्लाह ताला में प्रतिष्ठापित (Invest) हो जाती है और इसके साथ ही यह दो कवचों से लैस हो जाती है । पहला वक़्फ़ का स्थायित्व या सातत्व (perpetuity) और दूजा वक़्फ़ की अन्यसंक्राम्यता (alienability) । मतलब , यदि एक बार सम्पत्ति वक़्फ़ कर दी गयी तो वह सदा के लिए वक़्फ़ ही रहती है । उसका सृजक भी उसको वापस नहीं ले सकता । और दूसरे का अर्थ है कि उसे किसी अन्य को न तो विक्रय किया जा सकता है और न ही वक़्फ़नामे में वर्णित उद्देश्यों से इतर उसका उपयोग किया जा सकता है । वक़्फ़ अलल औलाद की दशा में जब वारिस ख़त्म हो जाते हैं तो जायदाद चैरिटी में चली जाती है अर्थात लाभार्थी सरकार हो जाती है ।
कुछ बातें विवादित हैं विशेषतः वक़्फ़ अलल औलाद को लेकर जिसमें व्यापक जनविमर्श को स्थान मिलना चाहिए ।
क़ानून को पढ़ने का अपना अलग ही मज़ा है । अब तो आए दिन संसद में बिलें इन्ट्रोड्यूस होती रहती हैं और उच्चतम न्यायालय के रोज़ नये नये जजमेंट आते रहते हैं और नये नये क़ानून बनते रहते हैं । पहले किसी संवैधानिक संकट वाले विषयों पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करता था अब हर नित्यक्रिया पर फैसला आता रहता है और किसी तहसीलदार के फैसले की तरह उसका तिक्का बोटी होता रहता है । संवैधानिक मूल्यों के अध्येता होने के नाते हर जजमेंट का या विधिक प्रस्ताव का तटस्थ व निष्पक्ष विश्लेषण करना रोचक लगता है । बउनवान वक़्फ़ अमेंडमेंट बिल 2024 संसद में लोक सभा के लिए एक नया बिल सर्कुलेट हुआ है । टीआरपी पिपासु टी वी चैनल्स भूखी नज़रों से इससे बदबू उठने के मुंतज़िर हैं । हमारे साथी भी जानने को बेताब हैं कि यह बिल आख़िर क्या बला है ? एक संतुलित विश्लेषण के लिए आवश्यक है कि हम उसका निर्मम वस्तुनिष्ठता से ही परिशीलन करें तथा किसी पूर्वाग्रह, या पक्षपातपूर्ण, भावनात्मक , नी जर्क टाइप रिएक्शंस देने से परहेज़ करें ।
हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां नाम बदलना शर्ट बदलने सा एक फ़ैशन हो चला है । शहरों के नाम बदलते बदलते अब हम विधिक संकल्पनाओं के नाम बदलने तक भी पहुंच गए हैं । वक़्फ़ अमेंडमेंट बिल 2024 में वक़्फ़ का नाम बदल दिया गया और प्रस्तावित है कि इसको अब एकीकृत वक़्फ़ प्रबन्धन, सशक्तिकरण, दक्षता और विकास के भारी भरकम लक़ब से नवाज़ा जाए।
नये संशोधन बिल की बात करें तो आग़ा ख़ानी और बोहराज़ के वक़्फ़ भी माने जाएंगे। चूंकि यह लोग शिया हैं और शिया वक़्फ़ के क़ानून भी पूरी तरह विकसित हैं और सक्षम है । तो अलग-अलग मतावलम्बियों के लिए अब अलग मंज़ूरी दे दिये जाने का प्रस्ताव है । इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन वे पिछले ऐक्ट वक़्फ़ ऐक्ट 1995 द्वारा भी कवर्ड थे।
प्रोपोज़ल है कि वक़्फ़ मैनेजमेंट सिस्टम का एक डेटाबेस होगा । कई राज्यों में जो वक़्फ़ बोर्ड हैं , देश में तक़रीबन 32 वक़्फ़ बोर्ड हैं उन्होंने कुछ डिजिटाइज़ेशन किया है । अब यदि कोई पोर्टल बनाया जा सकता है तो इसका स्वागत है ।
कल्याण तो सामान्य व व्यापक शब्द है उसमें हर चीज शामिल है । नये बिल में यह प्रोपोज़ल है कि कल्याण के आगे ‘विधवाओं’ , ‘तलाक़शुदा औरतों’ और ‘अनाथों’ का सम्पोषण, इन तीन शब्दों को भी जोड़ दिया जाए , इसमें भी किसी को क्या ऐतराज़ हो सकता है , तबीयत से करिये लेकिन 1986 के कानून में जो तलाक़शुदा महिलाओं के भरण-पोषण का प्रावधान था उसका क्या होगा । बहर हाल उससे भी किसी को क्या ऐतराज होगा ।
सेक्शन 3 A में कहा गया कि कोई भी आदमी वक़्फ़ क्रिएट नहीं कर सकता अगर वह उस सम्पत्ति का क़ानूनन मालिक नहीं है । यह पहले भी था । अब भी है । चौदह सौ साल से इस्लामिक कानून का यही वसूल है । अगर आप किसी प्रापर्टी के मालिक नहीं हैं तो उसे वक़्फ़ नहीं कर सकते । लेकिन याद रखिए ग़ैर मुस्लिम भी वक़्फ़ कर सकते हैं शर्त इतनी ही है कि उसके धार्मिक ,पवित्र , कल्याणकारी और परोपकारी उद्देश्य हिन्दू लाॅ के अंतर्गत क़ानूनन सम्मत होना चाहिए । और वह मुस्लिम लाॅ के तहत भी जायज़ हो ।
मुतवल्ली (वक़्फ़ सम्पत्ति का संचालक) के विषय में सेक्शन 50A में प्रस्तावित किया है कि वह 21 वर्ष से कम का नहीं होगा । वह पागल दिवालिया न हो , उसे किसी अपराधिक मामले में 2 साल की सज़ा ना हुई हो, वह किसी वक़्फ़ सम्पत्ति का नाजायज़ क़ब्ज़ेदार न रहा हो, उसे कभी मुतवल्लीशिप से पदच्युत न किया गया हो इत्यादि ।
वक़्फ़ अलल औलाद जो कि एक विवादास्पद विषय रहा है को समाप्त नहीं किया गया है , बल्कि उसमें यह कहा गया है कि इसका सृजन करने से यदि वारिसों और औरतों के विरासत के अधिकार ख़त्म हो रहे हैं तो इसके सृजन की इजाज़त नहीं होगी । इससे लगता है कि सरकार की मंशा औरतों को विरासत में अधिकार देने की है । यह निश्चित ही स्वागत योग्य है । हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में प्रापर्टी के मालिक को वसीयत करने की असीमित शक्ति है जिससे वह ऐसी वसीयत भी कर सकता है जिसमें वह अपनी सारी जायदाद बेटों को दे दे और बेटियों को कुछ भी ना दे और वही प्रावधान उत्तराखंड की यूनिफॉर्म सिविल कोड में भी आ गया । क्या हम उसमें भी बदलाव करने जा रहे हैं कि किसी हिंदू को अपनी वसीयत से अपनी बेटी को जायदाद में हक पाने से वंचित करने का अधिकार नहीं होगा ? और यदि हम उसमें परिवर्तन नहीं कर रहे तो क्या फिर एक देश और एक संविधान के मूलतत्व की हम जड़ें नहीं खोद रहे हैं ?
नये बिल में ऐसा प्रावधान है कि जितनी भी वक़्फ़ सम्पत्तियां हैं वे सब रजिस्टर होकर 6 महीने के अंदर पोर्टल पर आ जाएं । स्वागत योग्य है लेकिन यह समय सीमा बहुत ही अल्प है । इस समय सीमा को कम से कम पांच साल करना होगा । अभी सरकार ने जो भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता बनाई उसमें घोषणा कर दिया कि वह पांच साल में सभी पुलिस स्टेशनों को फ़ाॅरेंसिक जांच की सुविधा से लैस कराएगी लेकिन वह घोषणा अभी भी लक्ष्य से कोसों दूर है । तो हमें सीमा ऐसी तय करनी चाहिए जिसका वास्तविकता से कुछ नाता हो।
अभी तक जो वक़्फ़ एक्ट संसद से पारित किये गये जिसमें पिछला वक़्फ़ ऐक्ट 1995 जिसका सरकार संशोधन लाने का दावा कर रही है, में सर्वे कमिश्नर होते थे जो वक़्फ़ प्रापर्टी का सर्वे करते थे ,उसका भौतिक निरीक्षण व दस्तावेज़ी जांच करते थे फिर वक़्फ़ बोर्ड को रिपोर्ट देते थे , फिर वह रिपोर्ट राज्य सरकार के पास जाती थी और राज्य सरकार कौन सी प्रापर्टी उस रिपोर्ट की सूची में शामिल है उसको राज्य के गज़ट में प्रकाशित कराती थी । अर्थात राज्य का पहले भी नियंत्रण था । वक़्फ़ का सर्वे कमिश्नर राज्य सरकार ही नियुक्त करती थी । अब यह कहा जा रहा है कि सर्वे कमिश्नर नहीं होंगे उनके स्थान पर कलेक्टर साहब को सारे अधिकार होंगे , और भी कई शक्तियां कलेक्टर साहब को दे दी गई हैं हालांकि तब भी जिला अधिकारी को ही सर्वे कमिश्नर का कार्यभार भी दिया जाता था ।
1995 के ऐक्ट में प्रावधान था कि वक़्फ़ ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) का निर्णय अंतिम होगा लेकिन हाईकोर्ट रिकाॅर्ड तलब कर सकती थी, हाईकोर्ट वक़्फ़ के किसी मामले का स्वतः संज्ञान भी ले सकता है , वक़्फ़ बोर्ड भी हाईकोर्ट के दरवाज़े पर दस्तक दे सकता है , कोई क्षुब्ध व्यक्ति भी हाईकोर्ट का द्वार खटखटा सकता है । अब नये बिल में इस प्रावधान की अनेक बार पुनरावृत्ति है कि वक़्फ़ ट्रिब्यूनल का निर्णय अंतिम नहीं होगा । तो क्या इस प्रावधान को सरकार देश के हर न्यायाधिकरण के लिए समानरुप से लागू करने जा रही है ? क्या कानून बनाते समय यह ध्यान नहीं रखना चाहिए कि सारे कानूनों की एक सुसंगत पहुंच होनी चाहिए ? उत्तराखंड सरकार द्वारा पारित समान नागरिक संहिता कानून को राष्ट्रपति महोदया ने अपनी मंज़ूरी तो देदी किन्तु वह संसद द्वारा पारित अन्य कई कानूनों के असंगत और परस्पर प्रतिकूल साबित हो रहा है । तो कहीं ऐसा न हो कि नये बिल में न्यायाधिकरण का मुद्दा अन्य गठित न्यायाधिकरणों के क़ानून से असंगत या प्रतिकूल हो जाए । नये बिल में विरोधात्मकता को दूर करने का कोई उपाय नहीं सुझाया गया है ।
लिमिटेशन अवधि दो वर्षों की होगी । उसके बाद भी न्यायाधिकरण सुनवाई कर सकता है । सवाल वही रहेगा कि क्या लिमिटेशन कानून के सिलसिले में सरकार अपनी नीति बदल रही है ? और हम सारे ट्रिब्युनल्स के बारे में अब लिमिटेशन को अलग तरह से देखेंगे ।
सेंट्रल वक़्फ़ काउंसिल केंद्र सरकार बनाती है । 1995 के वक़्फ़ ऐक्ट में भी था वह अब भी वैसा ही है । जो लोग पहले मेम्बर बनने के पात्र थे वे अब भी मेम्बर रहेंगे । उसमें कहीं यह नहीं लिखा था कि कोई औरत सदस्य नहीं बन सकती ।आज भी बिना उस बिल में संशोधन किए उन्हें सदस्य बना सकते हैं । औरतें भी सदस्य हो सकती थीं , अब बलपूर्वक कहा गया है कि दो औरतों को सदस्या बनाना अनिवार्य होगा । पहले वाले ऐक्ट से दो से अधिक भी सदस्य हो सकती थीं । यह कहना कि औरतों के लिए विशेष प्रावधान कर दिया तो वह तो पहले भी था । हां वह पहले ध्वनित था लेकिन अब ज़ाहिर कर दिया है । यह स्वागत योग्य है ।
प्रस्ताव में यह भी है कि दो ग़ैर मुस्लिम सदस्य होंगे। वर्तमान ऐक्ट में भी इसका निषेध नहीं है कि ग़ैर मुस्लिम सेंट्रल वक़्फ़ काउंसिल के सदस्य बनें । इसलिये यह इतना बड़ा बदलाव भी नहीं है जिसका ढिंढोरा पीटा जा रहा है । आज भी ग़ैर मुस्लिम सदस्य हो सकते हैं । इस्लामिक क़ानून के मुताबिक मुतवल्ली भी ग़ैर मुस्लिम हो सकता है । इसलिए अगर केंद्रीय वक़्फ़ काउंसिल में या राज्य वक़्फ़ कौंसिल में औरतें आ जाएं या ग़ैर मुस्लिम आ जाएं तो इन क़दमों का स्वागत होना चाहिए ।
राज्य वक्फ़ बोर्ड के बारें में भी यह कहा गया कि उसमें दो औरतें होंगी , ग़ैर मुस्लिम होंगे ,सुन्नी होगा , ओबीसी होगा, बोहरा होगा और आग़ाख़ानी होगा । एक व्यापक प्रतिनिधित्व के दृष्टिगत वह भो क़ाबिले क़बूल है लेकिन फिर प्रश्न वही है कि जो हिंदू मंदिर बोर्ड है उसमें ख़ास शर्तें हैं कि केवल हिंदू ही सदस्य होगा लेकिन हिंदू की परिभाषा संविधान के अनुच्छेद 25 में परिभाषित हिंदू से तय नहीं होगी जिसमें बुद्ध , जैन और सिख भी शामिल हैं , बल्कि वह सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दू होगा । चलिये ग़ैर मुस्लिम का भी प्रावधान कर दिया । ग़ैर मुस्लिम हो सकता है तो भी इसका विरोध नहीं होना चाहिए । यह स्वागतयोग्य है , लेकिन हिंदू मंदिर बोर्ड में हम क्या करने वाले हैं ? क्या उसमें ग़ैर हिंदू को सरकार सदस्य बनाने जा रही है ?
अब वक़्फ़ बोर्ड का एक मुख्य कार्यपालक अधिकारी (C.E.O.) होगा । इसे भी एक बड़े बदलाव के रुप में देखा जा रहा है । वक़्फ़ ऐक्ट 1995 के सेक्शन 23 में प्रावधान था कि वक़्फ़ बोर्ड पैनेल दो सहायक सचिव स्तर के मुस्लिम अधिकारियों का नाम सरकार को देगा जो उनमें से एक की नियुक्ति मुख्य कार्यपालक अधिकारी के पद पर करेगी । अब नये प्रावधान में वह अधिकारी संयुक्त सचिव के स्तर का होगा , यह बात भी स्वागत योग्य है ।
लैंड रिकॉर्ड ऑफिसर काग़ज़ात वक़्फ़ में नाम व नवय्यत का ख़ारिज दाख़िल करने से पूर्व 90 दिन का नोटिस देगा । एक राष्ट्रीय व एक स्थानीय भाषा के अख़बार में वह सूचना प्रकाशित होगी । नोटिस प्राप्तकर्ता को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर होगा । यह अच्छी बात है और स्वागत योग्य है ।
ऑडिटर का पहले भी प्रावधान था । राज्य और केंद्र सरकार दोनों को पहले भी शक्तियां हासिल थीं । अब वक़्फ़ बोर्ड के बही खातों को सरकार भारत के महालेखाकार व नियंत्रक से ऑडिट करा सकती है । वह पहले भी करा सकती थी । वक़्फ़ में भ्रष्टाचार की चर्चा आम है और सरकारी विभाग भी इस प्रकार के आरोपों से पाक नहीं है । सरकार के मुख्य ढांचागत संस्थाओं में भी भ्रष्टाचार महालेखापरीक्षक व नियंत्रक द्वारा उजागर होते रहे हैं और उनकी रिपोर्ट के आधार पर सरकारें भी गिरी हैं ।
ट्रिब्युनल्स में उनकी शक्तियां जितनी कम की गई है वह भी नकारात्मक लगता है । ट्रिब्युनल्स जुडिशल ढांचे हैं । देश में 70 से ज्यादा ट्रिब्युनल्स हैं । यक़ीनन ज्यूडिशल पुनर्विचार या निगरानी का प्रावधान होना चाहिए यह स्वागत योग्य है, लेकिन ट्रिब्यूनल को यह पावर नहीं मिलनी चाहिए कि संयुक्त सचिव स्तर के कार्यपालक अधिकारी के आदेश को वह स्टे करे, यह बात गले के नीचे नहीं उतरती । कार्यपालक अधिकारी नीचे आएगा अर्ध न्यायिक संस्थान उसके ऊपर आएगा और सब के ऊपर न्यायिक संस्थाएं आती हैं । न्याय प्राधिकरण में कौन सदस्य होते हैं ? सरकार द्वारा नॉमिनेटेड व्यक्ति ही सदस्य होते हैं । क्या सरकार को अपने नॉमिनेटेड व्यक्तियों में विश्वास नहीं है ? यह बात समझ से परे है ।
एक संवैधानिक मूल्यों के पैरोकार होने की हैसियत से इस पूरे बिल का समग्रता से अवलोकन करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि मौजूदा सत्तारुढ़ दल कलेक्टर को कुछ ज्यादा ही शक्ति देने पर आमादा है । यह पब्लिक डोमेन में पहले से ही चर्चा का विषय है कि कलेक्टर साहब तो पहले से ही काम के बोझ के मारे हैं अब पूरा का पूरा वक़्फ़ का काम भी कलेक्टर साहब को दे दें तो बढ़े काम के भार से निश्चित है कि उनकी कार्य दक्षता कम ही होगी जबकि सरकार नये वक़्फ़ बिल की परिभाषा में कार्य कुशलता का उद्घोष कर रही है । यह जो कार्य कुशलता का मक़सद है वह कलेक्टर को इतनी ज्यादा शक्तियां देने से फलीभूत होता दिखाई नहीं पड़ता है । कहीं कलेक्टर साहब को सरकार ‘हातिम ताई’ तो नहीं समझ रही है । यह तो अंग्रेजों के दौर की बात है जब कलेक्टर को न्यायिक शक्तियाँ भी हासिल होती थीं । संविधान निर्माताओं ने तो शक्ति के वितरण पर बल दिया और उस शक्ति को न्यायिक दण्डाधिकारी को स्थान्तरित किया ।
इस बिल का एक प्रावधान और ऐसा है जो विशेषतया नकारात्मक है जहाँ वह यह कहता है कि वक़्फ़ संशोधन ऐक्ट 2024 के लागू होने के छः माह के बाद किसी भी न्यायालय के द्वारा, ऐसा वक़्फ़ जो वक़्फ़ बोर्ड में रजिस्टर्ड नहीं हुआ हो के पक्ष में किसी अधिकार के प्रवर्तन के लिए, कोई वाद, अपील, या अन्य कार्रवाई संस्थित, प्रारम्भ, स्वीकृत, परीक्षित अथवा निर्णीत नहीं की जायेगी। यहां यह बिल न्यायिक पुनर्विचार के अवसर से भी क्षुब्ध व्यक्ति को वंचित कर रहा है । एक ओर ट्रिब्युनल्स की पाॅवर को इस बिल ने कम किया और दूसरी ओर यह कहा कि इसमें न्यायिक हस्तक्षेप और अपील का प्रावधान नहीं किया जाएगा । तो क्या सरकार बिल बनाने में खुद ही कंफ़्यूज़्ड है ? वहाँ पर प्रावधान हटा रहे हैं जहां पर वक़्फ़ के पक्ष में कोई वाद है । इस नये बिल का मक़सद अगर वक़्फ़ को संरक्षित करना है तो फिर यह प्रावधान नहीं रह सकता और जितना लिमिटेड टाइम वाक़िफ़ को रजिस्ट्रेशन के लिए दिया है – मात्र 6 महीने – उसमें रजिस्ट्रेशन का काम सम्भव नहीं हो सकता । और अगर रजिस्टर न होगा तो फिर वक़्फ़ के बिहाफ़ पर कोई मुक़दमा स्वीकार नहीं किया जा सकेगा ।
यह कितना आश्चर्यजनक है । हाल ही में भारत की सुप्रीम कोर्ट ने लिमिटेशन पर बारदौली , गुजरात का मामला है जिसको अनुसूचित जाति विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र घोषित कर दिया गया । आर्टिकल 329 जो डीलिमिटेशन कमिश्नर के फैसले के खिलाफ किसी कोर्ट को न्यायिक अधिकार नहीं देता । यह संवैधानिक प्रावधान है । सुप्रीम कोर्ट ने कहा ऐसा नहीं हो सकता । अगर डीलिमिटेशन कमिश्नर का फैसला घोषित रूप से यदृच्छ्या है तो कोर्ट को ज्यूडिशल रिव्यू की पावर रहेगी । इस लिहाज़ से भी यह प्रावधान इस बिल में नहीं रहना चाहिए ।
अगर सरकार की मंशा वास्तव में वक़्फ़ संरक्षण की है जैसा कि इस बिल के उद्देश्य व कारण के वक्तव्य में अभिकथित है तो फिर जो वक्फ की प्रॉपर्टी में गड़बड़ करें उसकी सजा बढ़नी चाहिए ना की घटनी चाहिए । सेक्शन 52 ए में कठोर कारावास था उसमें से कठोर हटा देने का मतलब है इसकी सजा हल्की होगी । इसी तरह यह कॉग्निजेबल और नॉन बेलेबल था । उस प्रावधान को भी हटा दिया गया । कोई कोर्ट, मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या फर्स्ट क्लास जुडिशियल मजिस्ट्रेट से कम इसको सुन नहीं सकता था उसे भी हटा दिया गया ।
अर्थ दण्ड को 10000 से 20000 किया गया । इस पर भी पुनर्विचार होना चाहिए ।
वक्फ बोर्ड को यदि बचाना उद्देश्य है तो उसकी वित्तीय व्यवहार्यता होनी चाहिए ।1995 के एक्ट के अनुसार अगर वक़्फ़ की आमदनी 5000 से अधिक है तो वह मुतालबा बोर्ड अधिकतम 7% अदा करेगा तभी तो वक़्फ़ बोर्ड की कारकर्दगी सुधरेगी । नए बिल में 7% अधिकतम को घटाकर 5% अधिकतम का प्रस्ताव किया है । यह उस ध्येय से कि हम वक़्फ़ बोर्ड का अच्छा प्रबंधन करने जा रहे हैं, उसकी कार्य क्षमता सुदृढ़ करने जा रहे हैं, के प्रतिकूल है । यदि लिमिटेशन क़ानून लागू होगा तो हम यह तय कर लें कि क्या हम हर मामले में लिमिटेशन क़ानून अप्लाई करने जा रहे हैं ?
वक़्फ़ में भ्रष्टाचार समाप्त हो , वक़्फ़ में कार्य कुशलता आए यह सरकार के लिए भी वैध ध्येय है कि वह इसपर कोई क़ानून बनाए लोकिन हम इस तथ्य से ग़ाफ़िल न हों कि प्राइवेट लाॅ से पब्लिक लाॅ को नियंत्रित करना न्यायिक सिद्धांत के विरूद्ध जाने के बराबर है । जो प्राइवेट लाॅ के मामलात होंगे वे किसी की व्यक्तिगत इच्छा है जैसे कि औक़ाफ़ का सृजन । यदि वाकिफ़ किसी ‘अ’ को दान , उपहार देने की इच्छा व्यक्त करे तो उसे यह नहीं आदेशित किया जा सकता कि तुम ‘अ’ के बजाए ‘ब’ को भी दान व उपहार दो ।
तो कुल मिलाकर यह बिल उसी प्रकार से सत्तारूढ दल के बग़लें बजाने के काम आ सकती है जैसा कि उसने ट्रिपल तलाक़ व नागरिकता संशोधन बिल वगैरह को लेकर बजाया । इससे वक़्फ़ सम्पत्ति के अल्पसंख्यक समुदाय के हित में विकास के बजाए विनाश की सम्भावना बढ़ेगी । सुप्रीम कोर्ट इस ताज़ा न्यायिक संकट में उलझकर अपने चेहरे की कान्ति मज़ीद खो सकती है । अल्पसंख्यक समुदाय को इस वितण्डे से स्वयं को और भी ठगा व अपमानित महसूस कराना ही इस बिल का मक़सद प्रतीत होता है । मुश्किल यह है कि मौजूदा सत्तारूढ़ दल वक़्फ़ के क़ानून को समझना ही नहीं चाहता । वह केवल भ्रम रचकर अपना विभाजनकारी चुनावी एजेण्डा साधने में रुचि रखता है ।