लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई भी खतरे में?

त्रिलोचन भट्ट

हरिद्वार को छोड़कर उत्तराखंड के 12 जिलों में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव संपन्न हो चुके हैं। इस लेख के छपने तक संभवतः जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायत अध्यक्षों के चुनाव भी हो चुके होंगे। लेकिन, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि अब 5 साल तक के लिए सब शांत हो चुका है। पंचायत चुनावों को लेकर कुछ मामले पहले से अदालतों में हैं, इनमें उम्मीदवारों के नाम एक से ज्यादा जगहों पर मतदाता सूची में शामिल होने के मामले भी शामिल हैं। इसके अलावा अभी कई और मामले अदालतों तक पहुंचने की पूरी संभावना है। यानी कि अभी पंचायतों में कई तरह की उठक-पटक होनी बाकी है। इस पंचायत चुनावों में किस तरह से राज्य चुनाव आयोग के स्तर पर गड़बड़ियां हुई और किस तरह से उम्मीदवारों ने ही नहीं, मतदाताओं ने भी लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखा, किस तरह महिला उम्मीदवारों और विजेताओं की उम्मीदवारी और जीत पर उनके पतियों अथवा घर परिवार के किसी पुरुष ने सरेआम डाका डाला, इन विषयों पर भी पंचायती राज अधिनियम की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए बहस होनी चाहिए, ताकि भविष्य में ये सब न हो।

फिलहाल यहां मेरा विषय इन सब मामलों का विश्लेषण करना नहीं है, बल्कि त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में क्या कुछ मैंने देखा, वह दर्ज करना है। पंचायत चुनावों को नजदीक से देखने के लिए मैं करीब एक हफ्ते तक पौड़ी जिले के दर्जनों गांवों में रहा। जिन गांवों तक मैं पहुंच पाया, उनमें एकेश्वर, पोखड़ा, बीरोंखाल और रिखणीखाल ब्लॉकों के गांव शामिल हैं। मैंने कई उम्मीदवारों की सभाओं में पहुंचने का प्रयास किया और आम लोगों से उनकी समस्याओं के बारे में जानने की कोशिश की। लोगों ने अपनी समस्याएं बताई तो उम्मीदवारों ने प्राथमिकताएं गिनाई, लेकिन दोनों की बातों में गांवों के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे गौण थे और लोकतंत्र तो खैर इन चुनावों में कहीं था ही नहीं।

19 जुलाई, 2025। जब त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों के लिए प्रचार अभियान चरम पर था, मैं देहरादून से पौड़ी के लिए रवाना हुआ। ऋषिकेश से देवप्रयाग होकर हमने गंगा नदी पार की और पौड़ी की सीमा में पहुंचे। यह पौड़ी का कोट ब्लॉक है। इस रास्ते का सबसे प्रमुख जगह है सबदरखाल है। रुककर सबदरखाल जायजा लिया तो देखा यहां एक खास उम्मीदवार का प्रचार अभियान जोरों पर है। हर पत्थर पर, हर दीवार पर, हर सरकारी साइन बोर्ड पर एक ही उम्मीदवार के पोस्टर। इस रूट पर चुनाव प्रचार की एक ही गाड़ी दिखी, जो उसी उम्मीदवार की थी। अन्य उम्मीदवारों केे पोस्टर नाममात्र के थे, लग रहा था, मानों वे उस खास उम्मीदवार के पीछे दौड़ लगाने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन बुरी तरह से हांफ रहे हैं।

हमने पहले दिन चौबट्टाखाल पहुंचने का लक्ष्य रखा था, जो पौड़ी के कई ब्लॉकों का केन्द्र माना जा सकता है। चौबट्टाखाल दो ब्लॉकों पोखड़ा और एकेश्वर में बंटा हुआ है। अभी काफी यात्रा करनी थी, इसलिए सबदरखाल में ज्यादा रुकना संभव नहीं थी। पौड़ी, बुआखाल होते हुए हम ज्वालापा देवी मंदिर होकर पूर्वी नयार के पुल पर पहुंचे और यहां से राष्ट्रीय राजमार्ग छोड़कर चौंदकोट के इलाके में प्रवेश किया। किसी दौर में इस इलाके के लोगों द्वारा श्रमदान करके बनाये गये जन शक्ति मार्ग से होकर हम लोग जणदाखाल पहुंचे, जो आसपास के कई गांवों का केन्द्र भी है। पता चला कि पास के गांव मंें एक भारी-भरकम उम्मीदवार की जनसभा हो रही है। हमने जनसभा देखने का फैसला किया और गाड़ी उस गांव की तरफ मोड़ दी।

एक घर के आंगन कें करीब डेढ़-दो सौ लोगों की सभा थी। पहाड़ी गांव के हिसाब से इसे बड़ी जनसभा कहा जा सकता है। कुछ लोग कुर्सियों पर बैठे थे, बाकी जनता के लिए दरी थी। काफी लोग खड़े थे। एक सज्जन भाषण दे रहे थे, भाषण क्या दे रहे थे, लोगों को समझा रहे थे कि बाहर वाला कुछ नहीं करेगा, जो भी करूंगा मैं ही करूंगा। हालांकि पता चला कि जो व्यक्ति भाषण दे रहे हैं, और मैं ये करूंगा वो करूंगा कह रहे हैं, वे तो उम्मीदवार हैं ही नहीं। उनके परिवार की एक महिला उम्मीदवार है, जो उनके बगल में बैठी हैं। सभा के अंत में उम्मीदवार महिला ने दो वाक्य कहे। मेरा नाम फलां हैं। आप मुझे जरूर वोट दीजिए। इसके बाद सभा खत्म हुई और समोसे, जलेबी के साथ कोल्ड डिंªक का दौर शुरू हुआ। जनसभा से सीधे हम अपने रात्रि निवास स्थल चौबट्टाखाल पहुंचे। यहां पहुंचने तक अंधेरा घिर आया था।

20 जुलाई को कुछ स्थानीय साथी मिल गये, जो हमें पोखड़ा ब्लॉक के कई गांवों में ले गये। पोखड़ा एक बड़ा ब्लॉक है। यहां ऊंचाई पर स्थित किसी भी जगह पर खड़े होकर दूर-दूर तक फैले पहाड़ों, पहाड़ों पर स्थित गांवों और गांवों के बंजर पड़े खेतों को देखा जा सकता है। कुछ लोगों से बातचीत करने का प्रयास किया। ज्यादातर लोगों ने पानी की कमी की बात कही। जंगली जानवरों की बात भी आई, लेकिन बंजर पड़े खेतों को आबाद करने की इच्छाशक्ति कहीं नजर नहीं आई। कुछ प्रगतिशील किसान जरूर मिले, जो इस क्षेत्र में फलोत्पादन कर रहे हैं। लोगों को फलोत्पादन के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास भी कर रहे हैं, लेकिन गांवों के ज्यादातर लोग शहरों में हैं। गांव में रह रहा कोई व्यक्ति शहर में रह रहे लोगों के खेतों में कुछ करना चाहता है तो उसे खेत के मालिक इजाजत नहीं देते। ऐसे में बंजर पड़े खेतों के आबाद होने की इस तरह की कोशिशों के सफल हो पाने की सभी संभावनाएं लगभग खत्म हो गई हैं। बहरहाल हम एक और उम्मीदवार की सभा में पहुंचे। यहां भाषणबाजी नहीं हो रही थी। बस जलेबी पार्टी थी और आपसी बातचीत। लेकिन, इस तरह की बातचीत में भी क्षेत्र के मुद्दे गायब थे। बातचीत का ज्यादातर हिस्सा चुनावी गणित के लिए समर्पित था।

चौबट्टाखाल पौड़ी जिले का एक विधानसभा क्षेत्र भी है। इस क्षेत्र के विधायक सतपाल महाराज हैं, जो कैबिनेट मंत्री भी हैं। हमने सतपाल महाराज के गांव के आसपास के गांवों में जाने का निश्चिय किया। इन्हीं में से एक गांव है उबोट। सतपाल महाराज के गांव में बमुश्किल दो या तीन किमी की दूरी पर। इस गांव तक पहुंचने के लिए हमें करीब 4 किमी कच्चे रास्ते पर गाड़ीं चलानी पड़ी। गांव के लोगों का कहना था कि सतपाल महाराज जानबूझकर इस सड़क को पक्की नहीं होने दे रहे हैं। हालांकि ऐसा वे किस आधार पर कह रहे हैं, इस सवाल का संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया। लेकिन, मंत्री जी के आसपास के गांवों की सड़कों की यह स्थिति यह तो साफ कर ही देती है कि वे अपने क्षेत्र के विकास के प्रति घोर लापरवाह हैं।

हमें सतपाल महाराज के कट्टर समर्थक रह चुके एक व्यक्ति मिले। उनका दावा था कि वे सतपाल महाराज के एक जमाने में सबसे ज्यादा करीबी थे। क्षेत्र में एक तरह सेे सतपाल महाराज के प्रतिनिधि थे। एक बार उन्होंने उबोट जैसे कई गांवों में सड़कें ठीक करने की बात कही तो सतपाल महाराज ने कहा कि पोखड़ा में काम करेंगे तो बीरोंखाल वाले भी कहेंगे और दूसरी जगह वाले भी, इसलिए कहीं काम नहीं करवाना। उन व्यक्ति का यह दावा कितना सच है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन विकास की स्थिति ठीक नहीं है, यह तय है। इस क्षेत्र में चुनावों में शराब भी जमकर बांटी गई। सतपाल महाराज जैसे आध्यात्मिक गुरु के क्षेत्र में शराब का यह चलन बेहद निराशाजनक है। सतपाल महाराज बेशक विकास करवाने में लापरवाह रहे हों, लेकिन एक धर्मगुरु के रूप में वे अपने लोगों को शराब से दूर रखने का प्रयास तो कर ही सकते थे, जो कि नहीं हुआ।

21 जुलाई को हम चौबट्टाखाल से चलकर गंवाणी, पोखड़ा, घनियाखाल, वेदीखाल होकर पंचराड़ पहुंचे। यहां से बैजरों करीब 7 किमी दूर है। यहां एक उम्मीदवार ने हमें खासतौर पर बुलाया था। इस युवा उम्मीदवार की जनसभा में मुझे सुधीर सुन्दरियाल मिले, जो कि चौबट्टाखाल के पास अपने गांव डबरा में फलोत्पादन कर रहे हैं। रमेश बौड़ाई मिले जो कई सालों से चीड़ हटाओ, बांज लगाओ अभियान चला रहे हैं। सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता डॉ. प्रेम बहुखंडी पहले से मेरे साथ थे। पंचराड़ में जिस उम्मीदवार की सभा को देखने के लिए हम खासतौर पर गया था, वह क्षेत्र पंचायत के उम्मीदवार थे। उनके समर्थन में आसपास के गांवों के ग्राम प्रधान पद के उम्मीदवार भी आये थे। यहां मैंने प्रधान पद के उम्मीदवारों से बात करने की कोशिश की। जानना चाहा कि उन्हें पंचायती राज अधिनियम के बारे में कितनी जानकारी है? क्या वे संविधान की 11वीं अनुसूची के बारे में जानते हैं, जिसमें पंचायतों को 29 तरह के काम दिये गये हैं। लेकिन, किसी को जानकारी नहीं थी। मैंने इस सभा में बाइक संभाला और संविधान के 73वें संशोधन, पंचायती राज अधिनियम और संविधान की 11वीं अनुसूची के बारे में सरल शब्दों में बताने का प्रयास किया। सभा में मौजूद प्रधान पद के उम्मीदवारों के साथ ही कई मतदाताओं ने सभा के बाद मुझसे कई अन्य मुद्दों पर जानकारी मांगी। लेकिन, उन्हें बहुत संक्षिप्त में ही बता पाया। हमें वापस चौबट्टाखाल लौटना था।

वापसी में पोखड़ा में यहां के एक प्रमुख सख्शियत और कवि पयास पोखड़ा के साथ चाय पर लंबी बातचीत हुई। स्थानीय मुद्दों को लेकर। उनका कहना था कि पंचायत चुनावों मंे जो मुद्दे होने चाहिए थे, वे नादारद हैं। कलस्टर सिस्टम के नाम पर स्कूलों को बंद किया जा रहा है। प्राइवेट स्कूलों को प्रमुखता दी जा रही है। गरीब-गुरबों के लिए अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देना भी असंभव हो गया है। यही स्थिति अस्पतालों की भी है। स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए लोगों से 50 से 100 किमी तक दूर जाना पड़ता है और स्थिति ज्यादा खराब हुई तो कोटद्वार से पहले कुछ नहीं है। वहां से भी देहरादून या दिल्ली जाना पड़ता है। पयास पोखड़ा शराब के बढ़ते चलन से भी दुखी हैं। कहते हैं कि पोखड़ा बाजार में कई दुकानों में शराब बिकती है। कल ही एक दुकान से बड़ी मात्रा में शराब पकड़ी गई। चुनावों में शराब खुलकर बांटी जा रही है।

जैसे कि मैंने कहाए, हमें चौबट्टाखाल पहुंचना था, लेकिन गवांणी से कुछ आगे बढ़े तो सड़क पर मलबा आ गया। अंधेरा हो चुका था और दोनों तरफ कई वाहन रुके हुए थे। सुबह जब हम यहां से गुजरे थे तो यहां एक जेसीबी थी। इस समय कोई जेसीबी नहीं थी। सुबह तक सड़क खुलने के कोई आसार नहीं थे। पहाड़ के ज्यादातर ग्रामीण मार्गों पर यही स्थिति होती है। कई जगह तो एक बार सड़क टूटने के बाद हफ्तों तक ठीक नहीं हो पाती। कुछ सड़कें तो पूरी बरसात बंद रहती हैं। हमारे साथ सुधीर सुन्दरियाल भी थे। जो फलोत्पादन करते हैं और भलु लगद फील गुड संस्था के माध्यम से जल संरक्षण पर काम करते हैं। गंवाणी में उनकी संस्था का ट्रेनिंग सेंटर है। वापस गंवाणी लौटकर रात उनके ट्रेनिंग सेंटर में रहे।

22 मई एक व्यस्त दिन था। गंवाणी से चलकर हम पाली पहुंचे और पाली से कुंडील। हमारा लक्ष्य रमेश मुंडेपी जी से मिलना था। 70 वर्षीय रमेश मुंडेपी मिले। लगभग बंजर पड़ चुके इस क्षेत्र में वृक्षारोपण और फलोत्पादन कर रहे हैं। कुंडील में हम उनके बगीचे में गये, जहां कीवी प्रमुख रूप से उगाई जा रही है। इसके अलावा कई तरह के दूसरे फलदार वृक्ष भी उन्होंने लगाये हैं। वे लोगों को पौधे में बांटते हैं। पेड़ पौधों के बारे में रमेश मुंडेपी जी ने विस्तार से बताया, लेकिन चुनाव के बारे में पूछा गया तो उन्होंने निराशा जताई। यह कहकर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया कि उन्हें नेताओं से कोई उम्मीद नहीं है, चाहे वह ग्राम प्रधान हो या फिर सांसद। हम बौंदर गांव भी गये जहां सूरत सिंह रावत बागवानी और सब्जी उत्पादन कर रहे हैं।

शाम को हम नौगांव खाल पहुंचे। दिनभर खाना नहीं मिल पाया था तो यहां की एक फेमस स्वीट शॉप पर पहुंचे। बताया गया कि यहां के गरमागरम समोसे काफी फेमस हैं। लेकिन हमें समोसे नहीं मिले। बताया गया कि हर उम्मीदवार समोसे और जलेबी बांट रहा है। आजकल ऑर्डर पर बनते हैं और उम्मीदवार के लोग ले जातो हैं। दुकान के मालिक दीपक बिजल्वाण ने बताया कि आम दिनों में वे डेढ़ से दो सौ समोसे बेचते हैं, लेकिन इन दिनों 800 से एक हजार तक समोसों की डिमांड आ रही है। ऐसे में दुकान पर समोसे नहीं बेच रहे हैं। उन्होंने बताया कि जलेबी की भी यही स्थिति है। आम दिनों में वे 4 से 5 किलो जलेबी बेचते हैं, लेकिन इन दिनों 40 किलो तक की डिमांड है। उम्मीदवारों के लिए जलेबी और समोसे बांटना एक तरह की अनिवार्यता बन गई है। हमें छोले और बन खाकर संतोष करना पड़ा। गडोरा गांव में हमने पूछा कि लोग हर उम्मीदवार का समोसा जलेबी खा रहे हैं क्या? जवाब मिला कि नहीं खाएंगे तो दुश्मनी हो जाएगी। उम्मीदवार और उसके समर्थक कहेंगे कि ये दूसरे को वोट दे रहे हैं। इस स्थिति से बचने के लिए जो भी उम्मीदवार समोसे जलेबी बांट रहा है, सभी की खा रहे हैं।

22 जुलाई के पूरे सफर में सुधीर सुन्दरियाल भी साथ थे। शाम को उन्होंने अपने गांव डबरा चलने की पेशकश की तो भला हमें क्या आपत्ति हो सकती थी? डबरा पहुंचने तक अंधेरा हो चुका था। 23 की सुबह सुधीर सुन्दरियाल जी का बगीचा देखा। जहां सेब भी हैं तो आम भी। कलम लगाकर वे एक ही पेड़ से तीन से पांच तरह के फल उगा रहे हैं। जंगली मेलू के पेड़ से नाशपाती भी पैदा हो रही है तो बबूगोसा भी, आड़ू भी और पुलम भी। सुबह डबरा से चलकर बिजोरापानी, सुन्दरखाल, कुजणखाल, गडेरी, पटोटी, बस्टांग होकर पूर्वी नयार के किनारे जयकोट गांव पहुंचे। दूसरे गांवों की तरह जयकोट भी युवा विहीन गांव है। कुछ महिलाएं और कुछ रिटायर्ड बुजुर्ग मिले। उनमें से भी ज्यादातर कोटद्वार से वोट डालने के लिए गांव आये हुए थे। जयकोट गांव पूर्वी नयार से बमुश्किल 200 मीटर दूर है, लेकिन इस गांव में पानी के सख्त कमी है, बावजूद इसके कि पूर्वी नयार पर सौ से ज्यादा पंपिंग परियोजनाएं बनी हुई हैं। गांव के एक बुजुर्ग प्रेम बल्लभ भदौला ने बताया कि यह गांव पोखड़ा ब्लॉक का अंतिम गांव है। यहां न कभी कोई नेता आता है, न अधिकारी। नयार से लगता गांव का सैकड़ों एकड़ का सेरा है। पलायन और जंगली जानवरों के कारण अब बंजर पड़ा हुआ है। कुछ देर जयकोट में रहकर हम रात रहने के लिए घिरोली पहुंचे। पंचराड़ से मैं डॉ. प्रेम बहुखंडी के साथ था। उन्हें यहां कांग्रेस ने ऑब्जर्बर के रूप में भेजा था। उनका और मेरा एक जैसा काम था, इसलिए उनके साथ मुझे सहूलियत थी।

घिरोली में डॉ. प्रेम बहुखंडी के जानकार आनन्द प्रसाद ध्यानी हमारे मेजबान थे। वे सेवानिवृत्त होकर गांव आ गये हैं हालांकि उनका पूरा परिवार दिल्ली में है। कभी-कभी दिल्ली जाते हैं। ज्यादातर गांव में ही रहते हैं। रात को हम खाना खाने की तैयारी कर रहे थे, सूचना मिली कि गांव के एक व्यक्ति को सांप ने डस लिया है। ध्यानी जी रोटी छोड़कर दौड़ पड़े। आसपास प्राथमिक उपचार की कोई व्यवस्था नहंी थी। मरीज को करीब 40-50 किमी दूर रिखणीखाल ले जाया गया। ध्यानी जी और अन्य लोग भीषण बारिश के बीच रात 2 बजे के करीब लौटे। सांप संभवतः जहरीला नहीं था। मरीज को कोई नुकसान नहीं पहुंचा।

24 जुलाई को हम नयार को पार करके रिखणीखाल ब्लॉक में पहुंचे। यह पहले चरण के मतदान का दिन था। यहां हमें देहरादून, दिल्ली, गाजियाबाद, फरीदाबाद और गुड़गांव के नंबर वाली गाड़ियां गांवों की तरफ आती नजर आने लगी। बीच में एक छोटी से जगह है ढाबखाल। ढाबखाला में मेले जैसा मंजर था। बाहर के नंबर वाली गाड़ियों के लंबी कतार। लोग यहां रुककर चाय-नाश्ता कर रहे थे। पता चला कि ये लोग वोट डालने के लिए आये हैं। ज्यादातर को गांव लाने, गांव में रहने और वापस छोड़ने की व्यवस्था किसी न किसी उम्मीदवार ने की थी। करीब एक घंटे ढाबखाल में रहकर हमने लोगों से जानने की कोशिश की कि क्या वे गांव के ही वोटर हैं या जहां रहते हैं, वहां भी वोट देते हैं। पता चला कि ज्यादातर लोग वहां भी वोटर हैं और यहां भी उनका नाम वोटर लिस्ट में लिखवाया गया है। फिलहाल जब कई उम्मीदवारों के नाम ही कई जगहों पर वोटर लिस्ट में हैं तो मतदाताओं के बारे में क्या ही कहा जाए।

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