ढोल बिना पहाड़ सूना

ढोल पहाड़ की शान हैं। यदि कहा जाय कि ढोल के बिना पहाड़ सूने होते हैं तो इसमें गलत नहीं। हर संस्कार में, हर खुशी में, हर पर्व पर ढोल बजते हैं। लेकिन ढोल वादकों को कभंी सम्मान का अधिकारी नहीं माना गया। 18 जनवरी 2024 की शाम को जब दून पुस्तकालय में ढोल वादक प्रेम हिन्दवाल और उनके साथी जगमोहन का ढोल बजाकर स्वागत और शॉल ओढ़ाकर सम्मान किया गया तो वे भावुक हो गये।

पहाड़ और ढोल एक दूसरे के पर्याय हैं। आप याद करते जाइये। पहाड़ों में कब-कब ढोल बजता है। जन्म से शुरू होकर हर संस्कार में। यदि किसी व्यक्ति की अच्छी उम्र जीने के बाद मृत्यु होती है तो मृत्यु पर भी ढोल बजाया जाता है। पहाड़ की किसी शादी की कल्पना कीजिए, जिसमें ढोल न हो। त्योहारों को ही ले लीजिए। होली हो या दीवाली, जब तक ढोल नहीं, तब तक त्योहार का उल्लास फीका रहता है।

उत्तराखंड देवभूमि है और यहां निरंतर देवकार्य होते हैं। कभी पांडव नृत्य तो कभी बगडवाल नृत्य, कभी पौणा नृत्य तो कभी तांदी रासौ, कभी जात तो कभी बन्याथ। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि बिना ढोल के ये हो सकते हैं? बिल्कुल नहीं। उत्तराखंड के चारों धामों पर नियमित रूप से सुबह और शाम ढोल बजाया जाता है, जिसे नौबती कहा जाता है। स्वागत और विदाई में भी ढोल बेहद महत्वपूर्ण रहा है। बारात का स्वागत और विदाई हो या किसी नेता अथवा किसी अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति का ढोल बजाना सम्मानजनक माना जाता है। पहाड़ में आंदोलनों में भी ढोल बजाए जाते हैं।


यह अफसोसजनक है कि जो ढोल वादक हर मौके पर ढोल बजाते रहे। उत्सवों का उल्लास बढ़ाते रहे, उन्हें कभी सम्मान देने की जरूरत नहीं समझी गई। दून लाइब्रेरी में जब ढोल वादक प्रेम हिन्दवाल और जगमोहन का स्वागत ढोल बजाकर किया गया तो वे भावुक हो गये। ढोल सुपरिचित रंगकर्मी सतीश धौलाखंडी ने बजाया, दमाऊं पर संगत त्रिलोचन भट्ट ने की। प्रेम हिंदवाल ने अपने साथ हुए जातीय भेदभाव के बारे में बताया। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि अब स्थितियों में काफी बदलाव आ गया है। उन्होंने कहा कि वे किशोरावस्था से ढोल वादन का कार्य कर रहे हैं। अपने गांव से लेकर राष्ट्रीय मंचों तक अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। कई प्रतियोगिताएं जीत चुके हैं।

दून पुस्तकालय के सलाहकार प्रो. बीके जोशी ने कहा कि ढोल पर्वतीय समाज का प्रमुख वाद्य यंत्र है। ढोल सागर पर अभी भी बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है, ताकि इस कला के इतिहास और विकास पर गहन जानकारी प्राप्त की जा सके। उन्होंने ढोल कलाकारों की आर्थिक स्थिति महबूत किये जाने पर भी जोर दिया। पुस्तकालय के प्रोग्राम एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी ने उत्तराखंड हिमालय के ढोल वादन परंपरा को सांस्कृतिक धरोहर और अनमोल निधि बताते हुए इस विधा के कलाकारों को राज्य सरकार की ओर से प्रश्रय दिये जाने की बात कही।

इस मौके पर सबसे महत्वपूर्ण था डॉ. नन्द किशोर हटवाल का ‘ढोल कलावंत और संस्कृति’ विषय पर प्रजेंटेशन। उन्होने ढोल के कई आयामों पर प्रकाश डाला। कहा कि पहाड़ी समाज मंे ढोल की जड़ें बेहद गहरी हैं। लोक जीवन की खुशियों और हर्षोल्लास के केन्द्र मंे ढोल है। बिना ढोल के कोई भी समारोह सुनपट्ट लगता है। ढोल है तो छोटे आयोजन भी बड़े हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि पहाड़ के लोक जीवन का कोई ऐसा पहलू नहीं है, जिसमें ढोल न हो। यहां तक कि पेड़ बचाने के आंदोलन और सामूहिक पौधारोपण कार्यक्रम भी ढोल के बिना पूरे नहीं होते। लोक गीतों, मुहावरों और लोकोक्तियों में भी ढोल का कई बार इस्तेमाल हुआ है। उन्होंने सूचनाओं के आदान-प्रदान के साथ ही लोक साहित्य में ढोल की भूमिका पर भी प्रकाश डाला और ढोल को पहाड़ की चेतना और जागृत्ति का वाद्ययंत्र बताया।

डॉक्टर हटवाल की व्याख्यान के बाद ढोल पर एक चर्चा भी की गई जिसमें डॉक्टर योगेश धस्माना, रमाकांत बेंजवाल, राम चरण जुयाल, सत्यानंद बडो़नी, गजेंद्र नौटियाल, आचार्य कृष्णानंद नौटियाल, जयदीप सकलानी, राय सिंह रावत आदि ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम में सुपरिचित जनकवि अतुल शर्मा, पूर्व एडमिरल ओम प्रकाश सिंह राणा, प्रोफेसर राजेश पाल, साहित्यकार बीना बेंजवाल, किसान नेता सुरेन्द्र सजवान, कांता घल्ड़ियाल, अनीता चौहान, मोहन प्रसाद डिमरी, गोविंद प्रसाद हटवाल, शशि भूषण बडा़ेनी, निकोलस हॉफलैंड, सुंदर बिष्ट, सुशील पुरोहित, धर्मेंद्र नेगी, कुलानन्द घनसाला, सुनील भट्ट, गोपाल सिंह घुघतियाल, दीपिका डिमरी, सोनिया गैरोला आदि मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन बिज्जू नेगी ने किया। प्रेम हिंदवाल और जगमोहन ने ढोल दमाऊं पर कई ताल और नाद प्रस्तुत किये।

 

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