स्वर्गिक अनुभव से कम नहीं शेखरदा को सुनना

त्रिलोचन भट्ट 

 

क हफ्ते के भीतर दूसरी बार शेखर दा को सुनने का मौका मिला देहरादून में। शेखर दा यानी उत्तराखंड के एनसाइक्लापीडिया। चर्चित और सुपरिचित इतिहासकार प्रो. शेखर पाठक। यूं तो पहले भी एक-दो कार्यक्रमों में शेखर दा को सुना है। लेकिन इस बार का सुनना इस मायने में अद्वितीय था कि एक तो सुनने वाला प्रबुद्ध वर्ग था और दूसरा समय की कोई पाबंदी नहीं थी। 3 नवम्बर 2023 को दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर में शेखर दा का एक व्याख्यान हुआ। विषय था ‘उत्तराखंड में राष्ट्रीय संग्राम की झलक’। 5 नवम्बर को एक बार फिर से दून लाइब्रेरी में ही शेखर दा को सुनने का मौका मिला। इस बार हमारे कॉमरेड डॉ. गिरधर पंडित की पुस्तक ‘टिहरी की जनक्रांति’ का विमोचन था।

पहले 3 नवम्बर के व्याख्या की बात करें। यह व्याख्यान करीब ढाई घंटे का था। दून लाइब्रेरी के हॉल की लगभग सभी कुर्सियांे में सुनने वाले बैठे थे। शेखर दा ने श्रोताओं को ऐसा बांधा कि इन ढाई घंटों में हॉल में सन्नाटे के स्थिति बनी रही। आवाज थी तो सिर्फ शेखर दा की। मैं पहली बार देख रहा था कि हॉल में मौजूद सौ से ज्यादा लोगों में से एक भी इस ढाई घंटे को दौरान बाथरूम तक नहीं गया। जब ढाई घंटे के बाद शेखर दा ने अपनी बात खत्म की तो लगा कि काश कुछ और देर उनका व्याख्यान चलता।
क्या कहा शेखर दा ने
शेखर दा ने कई ऐसी बातें बताई, जो हमने पहले कभी नहीं सुनी थी। मसलन- अंग्रेज अवध जैसे भरेपूरे क्षेत्र पर अधिकार करने से पहले उत्तराखंड पर अधिकार कर चुके थे और इसके पीछे कई बड़े कारण थे। इन कारणों में एक कारण मुसोलिनी भी था। जब अंग्रेज सत्ता पूरे विश्व पर कब्जा करने के प्रयास में जुटी हुई थी तो इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने अंग्रेज सत्ता के सामने चुनौती खड़ी कर दी थी। उसने घौषणा कर दी थी कि वह भारत जाएगा। दक्षिण भारत और कुछ अन्य जगहों पर वैसे भी अंग्रेजों का विरोध का सामना करना पड़ रहा था। वे डरे हुए थे, लेकिन भारत को छोड़ना नहीं चाहते थे। ऐसे में उन्हें जब पता चला कि उत्तराखंड क्षेत्र का नेपाल की सत्ता से बेहद त्रस्त है तो उन्होंने नेपालियों को गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र से बेदखल करने का मन बना लिया।

कुमाऊं पर गोरखों ने 1790 में अधिकार कर लिया था और गढ़वाल में 1803 में आये विनाशकारी भूकंप का फायदा उठाकर कब्जा कर लिया था। गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह को देहरादून के खुड़बुड़ा में मार गिरा दिया गया था, लेकिन उनके बेटे सुदर्शन शाह को बचा लिया गया था। 1015 में कुमाऊं के तरफ से कोई स्थानीय प्रतिनिधि नहीं था, लेकिन गढ़वाल की तरफ से सुदर्शन शाह थे और उनके कहने पर अंग्रेजों से गोरखों को गढ़वाल और कुमाऊं से खदेड़ दिया। इसके बाद कुमाऊं पर तो अंग्रेजों का सहज अधिकार हो गया, लेकिन गढ़वाल पर कब्जा करने के लिए अंग्रेजों ने छल किया। सुदर्शन शाह को अलकनन्दा और दाहिनी तरफ का हिस्सा दिया। जो मौजूदा टिहरी और उत्तरकाशी के साथ ही रुद्रप्रयाग जिले का कुछ हिस्सा है। सुदर्शन शाह की पैतृक राजधानी श्रीनगर को अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया। उन्होंने मौला राम, गुमानी लाल और कृष्णा पांडे जैसे कवियों का नाम लिया, जिन्होंने उस दौर में अपनी कविताओं में अंग्रेज शासन का विरोध किया, जब समाज गोरखों से मुक्ति दिलाने के लिए अंग्रेजों को मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार कर चुके थे।

एक और खास बात उन्होंने बताई कि देश में रेल आने के मात्र 40 साल के भीतर उत्तराखंड में रेल आ गई थी। दरअसल यह अंग्रेजों का विकास का मॉडल नहीं था बल्कि रेल के जरिये यहां की वनोपज और अपनी फौज के लिए युवाओं को ले जाना था।
इस व्याख्यान में उन्होंने बताया कि 1857 से लेकर 1947 तक अंग्रेजों के खिलाफ हुए देशव्यापी आंदोलनों में उत्तराखंड भी शामिल रहा। 1857 के विद्रोह के बाद अल्मोड़ा और नैनीताल में कई लोगों को फांसी दी गई। श्रीनगर में नजीबाबाद से संबंध रखने वाले मुस्लिम समुदाय के कई व्यापारियों को विद्रोह से संबंध रखने की आशंका के कारण अलकनन्दा के किनारे एक पत्थर पर ले जाकर नदी में धक्का देकर मार डाला गया। शेखर दा ने दुर्लभ स्लाइड शो के माध्यम से उत्तराखण्ड के राष्ट्रीय संग्राम से जुड़े कई महत्वपूर्ण पक्षों पर विश्लेषणात्मक प्रकाश डाला। उन्होने बताया कि उत्तराखंड के स्थानीय आन्दोलन राष्ट्रीय संग्राम से किस तरह जुड़ने के आधार बने थे। राष्ट्रीय संग्राम की विभिन्न अभिव्यक्तियों में प्रमुख तौर पर 1857 की क्रांति, पेशावरकांड तथा आजाद हिन्द फौज में हिस्सेदारी के क्या खास अर्थ रहे इस बिंदु पर भी सम्यक बात रखी। उत्तराखण्ड से बाहर यहां के कार्यकर्ताओं व नेताओं के योगदान की भूमिका पर भी उन्होंने प्रकाश डाला। इस व्याख्यान में उत्तराखंड के अनेक संग्राम नायकों व स्वाधीनता संग्राम में तत्कालीन अनेक समाचार पत्रों के योगदान का भी जिक्र किया गया। उत्तराखंड जैसे इस छोटे से इलाके ने कैसे अपनी बड़ी हिस्सेदारी राष्ट्रीय संग्राम में दी और इसकी विकास यात्रा का मिजाज कैसा रहा।


शेखरदा ने विभिन्न तथ्यों व शोध कार्यों के आधार पर बताया कि उत्तराखण्ड में औपनिवेशिक शासन तथा सामाजिक संघर्ष को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में प्रस्तुत करने के प्रयास किये गये। उन्होने बताया कि राष्ट्रीय संग्राम में उत्तराखण्ड की हिस्सेदारी से तीन मुख्य बिन्दुओं का उल्लेख किया। इनमें पहला सवाल उत्तराखण्उ के समाज की विशिष्ट वर्ग संरचना का था और दूसरा ब्रिटिश काल में उत्तराखण्ड के टिहरी रियासत व ब्रिटिश कुमाऊं नाम के दो भिन्न सामाजिक-राजनैतिक ढांचे में विभक्त होना था। जबकि तीसरा बिंदु क्षेत्रीय प्रतिरोधों और व्यापक राष्ट्रीय आन्दोलनों के अर्न्तसम्बन्धों से जुड़ा हुआ था। प्रोफे. शेखर पाठक ने अपने व्याख्यान में उत्तराखण्ड के राष्ट्रीय संग्राम में अनेक नायकों यथा बद्री दत्त पाण्डे, मोहन सिंह मेहता, अनुसूइया प्रसाद बहुगुणा, जयानंद भारती, हरगोविन्द पंत, मुकुन्दी लाल, नरदेव शास्त्री, मोहन जोशी, गोविन्द बल्लभ पंत, पीसी जोशी, श्री देव सुमन ,शर्मदा त्यागी व नागेन्द्र सकलानी समेत अनेक संग्रामियों के योगदान को उल्लेखनीय बताया। तत्कालीन समाचार पत्रों अल्मोड़ा अखबार, गढ़वाली, शक्ति, स्वाधीन प्रजा, कर्मभूमि व युगवाणी सहित अन्य पत्रों की भूमिका व उनके योगदान को भी रेखांकित किया।

टिहरी की जनक्रांति का विमोचन
दो दिन बाद 5 नवंबर को एक बार फिर शेखरदा इसी दून लाइब्रेरी में सुनने का मौका मिला। इस बार बहाना था कामरेड डॉ. गिरधर पंडित की पुस्तक ‘टिहरी की जनक्रांति का विमोचन’ यह दरअसल कॉमरेड गिरधर पंडित का शोधग्रंथ है, जो उन्होंने 1980 में लिखा था और अब जाकर समय साक्ष्य ने इसे प्रकाशित किया है। पुस्तक पर फिर कभी टिप्पणी लिखूंगा। फिलहाल विमोचन समारोह के बारे में। समारोह की अध्यक्षता की पत्रकार और टिप्पणीकार राजीव नयन बहुगुणा ने। मुख्य वक्ता थे पुरातत्वविद् प्रो. अतुल सकलानी और प्रो. शेखर पाठक और संचालन कर रहे थे योगेन्द्र धस्माना। क्योंकि पुस्तक टिहरी की जनक्रांति पर है, लिहाजा शेखर दा की व्याख्यान इस बार टिहरी के विद्रोहों पर आधारित था, जिन्हें ढंडक कहा जाता है। इस बार शेखर दा ने टिहरी की प्रमुख ढंडकों का ब्योरा दिया। बताया कि 1930 के तिलाड़ी कांड के बाद ढंडकों की परंपरा खत्म हो गई थी। लेकिन, 10 वर्षों की चुप्पी के बाद श्रीदेव सुमन सामने आये। देहरादून में टिहरी प्रजामंडल की स्थापना हुई। श्रीदेव सुमन की शहादत ने एक बार फिर से क्रांति की अलख जगाई और आखिर का नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी कर शहादत के बाद सितंबर 1949 में यानी देश की आजादी के दो वर्ष बाद एक हजार से ज्यादा वर्षों तक पहले पूरे गढ़वाल और बाद में टिहरी पर शासन करने वाले पंवार वंश का अंत हुआ।

शेखरदा के बारे में
प्रो. शेखर पाठक ने 3 दशकों से अधिक समय तक कुमाऊं विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया है। वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला और नेहरू मेमोरियल संग्रहालय एवं पुस्तकालय, नई दिल्ली के फेलो रह चुके हैं। उन्होंने हिमालय के इतिहास, संस्कृति, लोक कथा और हिमालयी अन्वेषण के विभिन्न पहलुओं पर काम किया है। कुली बेगार प्रणाली, वन आंदोलन, उत्तराखंड की भाषाएं, हिमालयी इतिहास और खोजकर्ता नैन सिंह रावत की निश्चित जीवनी पर उनका काम उल्लेखनीय है। वे अस्कोट आराकोट अभियान, अन्य हिमालयी अध्ययन यात्राओं से जुड़े हुए हैं। वर्तमान में नैनीताल से प्रकाशित प्रसिद्ध ‘पहाड़’् पत्रिका का संपादन करते हैं। प्रो. पाठक 2006 में पद्मश्री और 2007 में राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। उन्हें वर्ष 2022 में ‘चिपको मूवमेंटः ए पीपल्स हिस्ट्री’ पुस्तक के लिए कमला देवी चट्टोपाध्याय पुरस्कार मिल चुका है।

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