एक कप चाय और वो कातर नजरें



कहानी : त्रिलोचन भट्ट

 

दिवाली आने में अब 5 दिन बाकी हैं। इस बार दिवाली पिछले साल की तुलना में 18 दिन देरी से आ रही है। हवाओं में ठंडक है। यह संध्या और रात का लगभग मिलन बिन्दु है। सहारनपुर शहर की सड़कों पर रौनक भी है और भीड़ भी। दिवाली की परंपरा के अनुसार दुकानदारों से अपनी दुकानें सड़क पर काफी आगे तक बढ़ा दी हैं। ऐसे में जगह-जगह जाम लगना स्वाभाविक है। सहानपुर के धूल-धक्कड़ और गाड़ियों की चिल्ल-पौं के बीच देर-देर तक ट्रैफिक खुलने का इंतजार करना जीवन के सबसे कठिन पलों में से एक होता है। सड़क पर कहीं-कहीं नजर आते पुलिस वालों की देखकर उम्मीद बंधती है कि शायद अब ट्रैफिक खुल जाएगा। लेकिन पुलिस वाले निरपेक्ष भाव से इस जाम को देख रहे हैं। वे जानते हैं कि उनके करने से कुछ होने वाला नहीं है, जो होना है हो ही जाएगा। यानी ट्रैफिक कभी न कभी तो खुलना ही है, सो खुल ही जाएगा।

पिछले डेढ़ घंटे से हमारी कार या तो सड़क पर खड़ी है या कभी-कभीं रेंग जाती है। कार में मेरे साथ गीता गैरोला, दीपा कौशलम, नाहिद और सतीश धौलाखंडी हैं। हम लोग सहारनपुर में संवैधानिक मूल्यों को लेकर हुई एक वर्कशॉप से लौट रहे हैं। बसों में धक्के खाने के बजाय हम पांच लोगों ने कार हायर की है।

जैसे कि मैंने बताया, पुलिस वालों को पूरी उम्मीद थी कि बिना उनके प्रयास के ही कभी ने कभी जाम खुल ही जाएगा। जाम पूरी तरह तो नहीं खुला, लेकिन दो घंटे से ज्यादा वक्त तक सहारनपुर की सड़कों पर रेंगने के बाद हम देहरादून हाईवे पर पहुंच चुके हैं। अब कुछ राहत मिली है, लेकिन चाय पीने की इच्छा बहुत तेज हो गई है। लिहाजा एक ढाबे पर कार रोककर चाय मंगवाई दी गई है।

हम एक राउंड टेबल पर बैठकर चाय पी रहे हैं। ढाबे से लगता बिजली का एक पोल है, ठीक सड़क के किनारे। हम सभी ने नोट किया कि दुबला-पतला सा किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित प्रतीत हो रहा एक युवक बिजली के पोल के नीचे खड़ा है। चाय की चुस्कियां लेते हुए हमने महसूस किया कि वह युवक कातर नजरों से हमारी तरफ देख रहा है। साफ लग रहा था कि वह हमसे कुछ कहना चाहता है, लेकिन कह नहीं पा रहा है। जैसे कि हमें आदत है, ऐसी छोटी-छोटी बातों और ऐसे छोटे-छोटे लोगों को हम नजरअंदाज कर देते हैं। हमने यही किया था।

हम आगे की यात्रा के लिए कार में बैठ चुके हैं। लेकिन, गीता गैरोला दी उन कातर नजरों को यूं ही पीछे छोड़कर जाने के लिए शायद तैयार नहीं थी। आम लोगों को और लेखकों की संवेदनाओं में शायद यही सबसे बड़ा फर्क होता है। गीता दी बोली, वह लड़का हमें तब से देख रहा है, मुझे बहुत खराब लग रहा है। त्रिलोचन! पूछना जरा उसे। मैं ड्राइवर के साथ वाली सीट पर था। युवक को बुलाकर पूछा, क्यों खड़े हो यहां? बहुत मरियल और सहमी आवाज में युवक बोला, चाय पीनी है। गीता दी और हम सबका अंदाजा सही था। हमने कुछ पैसे मिलाकर युवक को दे दिये। कुछ संतोष का अनुभव हुआ, पर यह घटना कई सवाल भी छोड़ गई।

पहला सवाल यह कि थोड़ा से पैसा मिलने से उस युवक को बेशक कुछ राहत मिली हो और थोड़ी सी खुशी भी मिली हो, लेकिन यह राहत और यह खुशी कितनी देर उसके साथ रहेगी? हम क्योंकि अभी-अभी संवैधानिक मूल्यों के बारे में लिख-पढ़ रहे थे, लिहाजा सवाल उठा कि क्या संविधान इस और इस जैसे युवक के लिए नहीं है, कहां गया संविधान में समता और अवसर की समानता का अधिकार? संविधान तो हमें भोजन और स्वास्थ्य का अधिकार भी देता है, तो यह युवक इस अधिकार से आज भी वंचित क्यों है? सवाल तो यह भी है कि क्या यह युवक उन 80 करोड़ भारतीयों में शामिल नहीं है, जिन्हें सरकार के दावों के अनुसार हर  महीने मुफ्त राशन दी जा रही है?

संभव है तो ऐसे सवालों पर आप भी जरूर गौर कीजिए।

 

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