जोशीमठ के साथ रैणी, सुभाईं और सेलंग

डायरी : दरकते, धंसते जोशीमठ की कहानी भाग-4

यह डायरी धंसते-दरकते जोशीमठ की तीन दिन की यात्रा का वृतांत लिखने का प्रयास है। डायरी के कुछ हिस्से हेराल्ड ग्रुप के अंग्रेजी अखबार नेशनल हेराल्ड, हिन्दी अखबार नवजीवन और उर्दू अखबार कौमी आवाज ने प्रकाशित किये हैं। यहां सम्पूर्ण डायरी प्रकाशित की जा रही है – त्रिलोचन भट्ट

जोशीमठ के ज्यादातर प्रभावित इलाकों को देखने, लोगों के दुःख-दर्द साझा करने का प्रयास करने और कुछ देर तहसील स्थित धरनास्थल पर धरने में शामिल होने के बाद मैं रैणी की तरफ निकल रहा हूं। जोशीमठ आकर रैणी न जाऊं तो कुछ अधूरा सा लगता है। धौली और ऋषिगंगा के संगम स्थल से कुछ दूरी प्रकृति के संरक्षण के लिए समर्पित हमारी वैचारिक मातृ महिला गौरा देवी का गांव। फरवरी और फिर जून 2021 की आपदा के पूरी तरह से असुरक्षित हो चुके रैणी गांव को इसके लगभग 5 किमी ऊपर भविष्य बदरी के रास्ते में पड़ने वाले सुभाईं गांव में बसाने की योजना बनाई गई थी। अब तक इसमें क्या प्रगति हुई, यह जानने के लिए मैंने अपने साथियों के साथ रैणी जाने की योजना बनाई।

जोशीमठ से आगे बढ़कर तपोवन पहुंचे तो भूख लग चुकी थी। थपलियाल जी के ढाबे पर दाल-भात खाने के दौरान पता चला कि सुभाईं गांव में भी कई घरों पर दरारें आ गई हैं। सुभाईं के लिए तपोवन से सड़क है, और लगातार ऊंचाई की ओर बढ़ती इस सड़क पर करीब 10 किमी पर सुभाईं है। फिलहाल हम पहले रैणी पहुंचे हैं। सड़क के ठीक ऊपर रैणी के कुछ परिवारों के घर हैं। सड़क से गांव की तरफ बढ़ने पर सफेद रंग का एक द्वार है। द्वार पर गौरा देवी और उनकी सहयोगी रही उन महिलाओं के नाम अंकित हैं, जिन्होंने 26 मार्च, 1974 को पेड़ों से चिपककर जंगलों को कटने से बचाया था। कुछ मीटर दूर ही गौरा देवी की प्रतिम लगी थी, जो जून 2021 में सड़क टूट जाने के बाद हटा दी गई थी।

गांव सुनसान है। कई बार आवाज लगाने पर बगीचे में काम कर रही एक बुजुर्ग महिला उत्तर देती है। हमारे बारे में पूछती हैं। हमने ग्राम प्रधान भवान सिंह जी के बारे में पूछा तो बुजुर्ग महिला, जिन्होंने अपना नाम सौंणी देवी बताया, कहा कि ज्यादातर लोग कहीं पूजा में गए हैं। बुजुर्ग महिला ने आवाज लगाकर एक अन्य महिला को बुला लिया। वे प्रधानजी के धर्मपत्नी हैं, नाम करिश्मा है। पूछने पर बताती हैं कि पुनर्वास के मामले में जो स्थिति जून 2021 में थी, वही आज भी है। इस बीच इतना जरूर हुआ कि तहसील वालों ने हमें गौरा देवी के प्रतिमा वापस सौंप दी गई। हमने आपस में थोड़ा-थोड़ा पैसा जमा कर प्रतिमा को गांव के ऊपर के हिस्से में स्थापित कर दिया है। करिश्मा कहती हैं, सुभाईं में बसाने की बात सुन रहे थे, लेकिन अब तो सुभाईं में भी दरारें आ रही हैं। रैणी के बारे में ज्यादा जानने के लिए कुछ रह नहीं गया है। हमें वापस तपोवन लौटकर तेजी से सुभाईं जाना होगा, ताकि वापस जोशीमठ समय पर लौट सकें।

नई बनी कच्ची सड़क पर करीब 10 किमी चढ़ते हुए हम सुभाईं पहुंचे हैं। करीब 3200 मीटर की ऊंचाई पर बसे इस गांव से हिम रेखा बस कुछ ही दूर रह गई है। खास बात यह है कि ऊंचाई वाले अन्य भोटिया जनजाति बहुल गांवों के तरह सुभाईं के लोग सर्दियों में निचले क्षेत्रों में स्थित गांवों में नहीं उतरते। यहां के लोगों का निचले क्षेत्रों में कोई गांव नहीं है। हम गांव में आ रही दरारों के बारे में जानने के लिए यहां आये हैं, यह जानते ही कई लोग हमारे पास आ गये हैं। इनमें सुरेन्द्र िंसह रावत, प्रेम सिंह रावत, रूप सिंह फरस्वाण, गिरीश सिंह राणा, भंगुली देवी आदि शामिल हैं। लोगों में अपना-अपना घर दिखाने की होड़ मच गई है। शायद उन्हें लगा हम किसी सरकारी महकमे से हैं। हालांकि जब हमने बताया कि हम मीडिया से हैं, तब भी अपने घरों की दरारें दिखाने लिए ये लोग हमें अपने-अपने घर ले जाते रहे। हमने सुभाईं में करीब दर्जनभर घर देखे। कुछ घर तो लगभग ढहने की स्थिति में हैं। इनमें कुछ पुराने घर हैं, कुछ एक दो साल पहले बने हुए।

सुभाईं के नीचे तो कोई टनल भीं नहीं है, फिर यहां दरारें क्यों आ रही होंगी? प्रेम सिंह रावत बताते हैं कि फरवरी 2021 की आपदा के बाद से ही गांव में इस तरह की दरारें देखने को मिल रही थी, जो हाल के दिनों में कुछ ज्यादा बढ़ गई हैं। कुछ लोग गांव के ठीक नीचे से गुजर रहे जोशीमठ-मलारी रोड के चौड़ीकरण को भी इसकी वजह मान रहे हैं। इस गांव में अब तक कोई अधिकारी मौका मुआयना करने नहीं आया है, ऐसा गांव के लोगों का कहना है। अंधेरा होने लगा है और कुछ ही दूर हिमरेखा से आ रही ठंडी हवाएं झुरझुरी पैदा कर रही हैं। वापस लौटने में हम निर्धारित समय से काफी लेट हो चुके हैं। गांव के बाहर जोशीमठ के नारसिंह (नृसिंह) मंदिर की तर्ज पर एक भव्य मंदिर निर्माणाधीन है। हाल के वर्षों में पहाड़ के गांव में मंदिर बहुतायत में बने हैं।

जोशीमठ में अपने ठिकाने काफल होमस्टे तक पहुंचते-पहुंचते रात काफी गहरा गई थी। दिनभर की आंखों देखी लिखने बैठा था तो देर रात तक आधा ही लिख पाया। आज श्रीनगर में होटल में इसे पूरा करने के प्रयास में फिर से आधी रात से ज्यादा का वक्त गुजर गया है। देहरादून पहुंचकर तमाम तरह की उलझनों के बीच लिखना संभव नहीं हो पाएगा। इसलिए इसे आज ही पूरा लिखना जरूरी है। अभी सेलंग गांव बाकी है, जहां आज यानी 11 जनवरी को जोशीमठ से लौटते हुए मैं मेरे साथी कुछ देर रुक गये थे। एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना से सबसे ज्यादा प्रभावित गांव है सेलंग।

सेलंग जोशीमठ से वापस लौटते हुए करीब 3 किमी पर है। मुख्य सड़क पर सेलंग के कुछ घर और कुछ दुकानें हैं। गांव सड़क से करीब 2 किमी पैदल और करीब 7 किमी मोटर मार्ग पर है। गांव में मुझे नीरज सिंह बिष्ट, भवानी देवी, लक्ष्मी देवी और कुछ अन्य लोग मिलते हैं। वे बताते हैं कि तपोवन-विष्णुगाड परियोजना के लगभग सभी निर्माण गांव के नीचे है। गांव की जमीन पर सिर्फ एक निर्माण है, जिसे सर्ज शॉफ्ट कहा जाता है। तपोवन में बन रहे डैम से पानी जोशीमठ के नीचे से गुजर रही टनल के जरिये इस सर्ज शॉफ्ट तक पहुंचेगा और यहां से फोर्स के साथ जमीन के नीचे बने पावर हाउस की 130-130 मेगावाट की चार टर्बाइन तक भेजा जाएगा। जमीन के नीचे संदूक बांध, डिसिल्टिंग चैंबर, हेड रेस टनल, टॉलरेंस टनल सहित दर्जनों निर्माण हैं।

भवानी देवी बताती हैं, 2018 में कुछ गांव की जमीन एक्वायर हुई थी। जमीन का निर्धारित से चार गुना ज्यादा मुआवजा देकर गांव के विकास की बात कही गई। कई तरह के प्रलोभन दिये गये। कुछ लोगों ने जमीन देने से इंकार किया तो जबरन उनके खातों में पैसा ट्रांसफर किया गया। लेकिन जब काम शुरू होते ही गांव की जमीन के नीचे धमाके होने लगे और घर हिलने लगे। मुआवजे में मिली रकम से गांव वालों जो नये-नये मकान बनाये थे, उनमें भी दरारें आने लगी। गांव के परंपरागत पानी के स्रोत सूखने लगे। हमें तब पता चला कि चंद पैसे का लालच देकर हमसे हमारी जमीन ही नहीं, हमारे पानी के स्रोत और हमारा सुख-चैन भी छीन लिया गया है। दरअसल हम विकास के नाम पर ठगे गये हैं। अब हमें कोई नहीं पूछता।

यहां जोशीमठ और इसके आसपास के गांवों की भौगोलिक स्थिति पर नजर डालना भी जरूरी है। यहां हो रहे धंसाव का कोई एक नहीं, कई कारण हैं। इस मामले में अतुल सती का यह कहना बिल्कुल ठीक लगा कि जब कोई एक्सीडेंट होता है तो शरीर के कई हिस्से जख्मी होते हैं, लेकिन मौत अक्सर हेड इंजरी से होती है। वे तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की टनल को जोशीमठ को इस हालात में पहुंचाने वाली हेड इंजरी बताते हैं। जोशीमठ अचानक असुरक्षित नहीं हुआ। सच्चाई यह है कि जोशीमठ और सेलंग जैसे गांवों को इस हालत में पहुंचाने का मुख्य कारण चेतावनियों को नजरअंदाज करना भी है। इस भूभाग को लेकर पहली चेतावनी तो आज से 135 वर्ष पहले ही आ चुकी थी, 1886 में जब एडविन एटकिंसन ने ‘द हिमालयन गजेटियर’ में संकेत दिया था कि जोशीमठ भूस्खलन के मलबे पर बसा हुआ है। दूसरी चेतावनी में 1976 में आई, जब तत्कालीन गढ़वाल कमिश्नर सतीश चंद्र मिश्रा की अगुवाई में बनाई गई एक 22 सदस्यीय कमेटी ने जोशीमठ को लेकर एक रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट में भी यह बात साफ तौर पर कही गई कि जोशीमठ पुराने भूस्खलन के मलबे पर है। इसकी वहन क्षमता कम है। मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट में जोशीमठ में बड़े निर्माण न करने, यहां तक के यहां के ढालों पर खेती न करने की भी सलाह दी गई थी।

लेकिन, इन चेतावनियों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। आसपास के गांवों के लोगों का जोशीमठ में आकर बसने का सिलसिला तो जारी रहा ही, भारतीय सेना ने भी यहां एक बड़े भूभाग पर भारी भरकम निर्माण किये। जोशीमठ और आसपास के क्षेत्रों में कई बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं भी बनाई गई, जो अन्य कारणों के साथ जोशीमठ के धंसने, दरकने, बदहवास और अस्त-व्यस्त होने का सबसे बड़ा कारण बनी।
समाप्त

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