पहाड़ के लड़कों को क्यों नहीं मिल रही दुल्हन
त्रिलोचन भट्ट
यदि आप भी अपने बेटे के लिए बहू ढूंढ रहे हैं और बहू नहीं मिल पा रही है तो हो सकता है इसके लिए अस्पताल का बोर्ड जिम्मेदार हो। अब आप कहेंगे कि बहू न मिलने के लिए अस्पताल का बोर्ड कैसे जिम्मेदार हो सकता है? बहू तो इसलिए नहीं मिल पा रही है कि लड़कियों के दिमाग चढ़ गये हैं। बहू इसलिए नहीं मिल पा रही हैं कि लड़कियों को हल्द्वानी देहरादून में मकान चाहिए। बहू तो इसलिए नहीं मिल पा रही है कि पहाड़ की लड़कियां पहाड़ में नहीं रहना चाहती हैं। ऐस लोगों की भी कमी नहीं है जो बहू न मिल पाने के लिए लड़कियों के लिए भला-बुरा कह रहे हैं, लेकिन जरा रुकिये साहब, बहू न मिलने के पीछे यह सब कारण तलाशने से पहले आप अस्पताल के इस बोर्ड को देखिए, जो आपको बहू न मिलने का एकमात्र तो नहीं, लेकिन सबसे बड़ा कारण जरूर है।
पिछले दिनों भतीजे का स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण मेरा देहरादून के एक प्राइवेट अस्पताल में जाना हुआ। अस्पताल की दीवार पर लगे एक बोर्ड ने मेरा ध्यान खींचा। ये बोर्ड दरअसल एक चार्ट था, जिसमें उस छोटे अस्पताल में इस साल जनवरी से नवंबर तक पैदा हुए बच्चों की कुल संख्या के साथ ही कितने लड़के और कितनी लड़कियां पैदा हुई, इसका ब्योरा दर्ज था। मुझे अफसोस हुआ, जब देखा कि पूरे साल में एक महीना ऐसा था, जब इस अस्पताल में लड़कियां ज्यादा और लड़के कम पैदा हुए थे। 3 लड़कियां और 2 लड़के। बाकी हर महीने लड़कों की संख्या लड़कियों से ज्यादा दर्ज थी। एक महीना तो ऐसा भी था, जब इस अस्पताल में सबसे ज्यादा 14 बच्चे पैदा हुए थे। इनमें लड़कियां थी 3 और बाकी 11 लड़के थे।
क्या यह सिर्फ संयोग था कि इस अस्पताल में हर महीने ज्यादा लड़के पैदा हुए थे, या कहीं अब भी मेरे दौर वाला किस्सा ही तो नहीं चल रहा है? मेरे दौर में एक गजब का खेल हो रहा था, इस बोर्ड को देखकर मुझे आशंका हुई कि यदि अब भी ऐसा हो रहा है तो सोच लीजिए, अभी तो सिर्फ आपको अपने बेटे के लिए बहू नहीं मिल पा रही हैं, आने वाले दौर में आपको अपनी बेटियों को सुरक्षित रखना मुश्किल हो जाएगा। यकीन मानिये वह बहुत बुरा दौर होगा। बेटियों के लिए बहुत अच्छा दौर तो ये भी नहीं है, फिर भी…
जरा उस खेल के बारे में सुनिये, जो मेरे दौर में सरेआम आम होता था। यदि कोई महिला पहली बार प्रेगनेंट होती थी तो उसके साथ ऐसा खेल नहीं होता था। पहली बार में बेटा हुआ तो पूरे खानदान की बल्ले-बल्ले होती थी और बेटी हुई तो चलो लक्ष्मी आई है कहकर मरे मन से खुद को खुश दिखाने का प्रयास किया जाता था। लेकिन यदि महिला की पहली बेटी हुई हो और दूसरी बार वह प्रेगनेंट हो जाए तो 80 परसेंट से ज्यादा परिवार भ्रूण लिंग परीक्षण करवाते थे और बेटी होने पर महिला का गर्भपात करवा देते थे।
उत्तराखंड से काफी पहले ये खेल हरियाणा में शुरू हो चुका था। उस दौर में मैं हरियाणा मंे एक अखबार के लिए काम करता था। मैं अखबार के माध्यम से बार-बार लोगों का आगाह करता था। हमारी एक साथी थी, जो एक कॉलेज में हिन्दी पढ़ाती थी, उसने एक कविता के माध्यम से पेट में मारी जाने वाली बेटी के दर्द को बयां किया था। कविता में पेट में मारी जा रही बेटी अपने मां-बाप को आगाह करती है कि यदि तुम लोग हम बेटियों को इसी तरह से पेट में कत्ल करवाते रहोगे तो अपने बेटों के लिए बहू कहां से लाओगे? मां के पेट में धारदार हथियारों से टुकड़े-टुकड़े होती वह बेटी अपने मां-बाप को उनकी संतति आगे न बढ़ने तक का श्राप देती है।
पेट में मारी जा रही उस बेटी की आशंका सही साबित हुई। हरियाणा में करीब 20 साल पहले बिना बेटियों वाली पीढ़ी जवान हो गई थी, इसलिए वहां 20 साल पहले बहुएं कम पड़ने लगी थी। उत्तराखंड में बिना बेटियों वाली पीढ़ी अब जवान हुई है तो वैसी स्थिति अब सामने आई है। अब आप बहू न मिलने के लिए लड़कियां को गाली दो या उनके मां-बाप को इससे कुछ नहीं होने वाला है। हां इतना जरूर है कि लड़कियां कम हैं, इसलिए उनके पास विकल्प ज्यादा हैं। ऐसे में वे हल्द्वानी-देहरादून में घर होने की शर्त रख रही हैं। और इस शर्त की बड़ी वजह यह नहीं कि लड़कियां पहाड़ में नहीं रहना चाहती। बड़ी वजह यह है हमारी सरकारों ने पहाड़ों में स्वास्थ्य और शिक्षा चौपट कर दी है। आज भी पहाड़ों में स्वास्थ्य सुविधाएं न होने के कारण प्रसव के समय बेटियों की मौत हो जाने या अस्पताल के रास्ते में बच्चे को जन्म देने जैसी खबर आये दिन आती हैं। इस पर मैं पहले ही विस्तार से वीडियो बना चुका हूं। आप इस चैनल पर देख सकते हैं। देहरादून और हल्द्वानी में घर होने का विकल्प होने के बावजूद कोई लड़की क्यों चाहेगी कि पहाड़ में रहकर इस तरह बेमौत मरने का रास्ता खुला रखा जाए या फिर ऐसी शर्मनाक स्थिति में बच्चे को जन्म दिया जाए।
मुझे लगता था कि बेटियों को मां के पेट में ही मरवा देने जैसा कुकर्म मेरी पीढ़ी के लोग ही करते थे, नई पीढ़ी, जिसे तकनीकी शब्दों में आजकल जेन जी कहा जा रहा है, वह वैसी नहीं हैं। बेटों और बेटियों को बराबर का दर्जा देने वाली पीढ़ी है। लेकिन, अस्पताल का वह बोर्ड तो कुछ और कहानी कह रहा है। वैसे किसी ने मेरे पास देहरादून के एक सरकारी अस्पताल का डेटा भेजा है, जो बताता है इस साल जनवरी से अक्टूबर तक उस अस्पताल में हर महीने बेटों से ज्यादा बेटियां पैदा हुई हैं।
यहां एक सवाल और सामने आता है। प्राइवेट और सरकारी अस्पताल में पैदा होने वाले बच्चों के लिंगानुपात यानी सेक्स रेसियो में यह विरोधाभास कहीं कोई और कहानी तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि प्राइवेट अस्पताल सरकार की तमाम सख्तियांे के बाद भी भ्रूण लिंग परीक्षण और बेटियों की गर्भ में हत्या करने जैसे जघन्य और गैर कानूनी काम में लिप्त हैं? मैं चाहता हूं कि तमाम अस्पतालों के आंकड़े निकालकर यह सच्चाई सामने लाई जाए।
कुल मिलाकर बात ये है कि आप बेशक लड़कियांे और उनके मां-बाप को कोसते रहो, उन्हें भला-बुरा कहते रहो। देहरादून हल्द्वानी में मकान होने की उनकी चाहत का मजाक उड़ाते रहो। अभिनव रावत के चल भुला नौनि खुज्याण नेपाल जौला गीत को सुनकर चित बुजाते रहो, लेकिन वास्तव में यदि आपके बेटे के लिए बहू नहीं मिल रही है, तो हो न हो, आप खुद भी इसके लिए जिम्मेदार हांे। अभी जिन लड़कियांे को आप भला बुरा कह रहे हैं, गनीमत समझो कि उनके मां-बाप ने उन्हें दुनिया में आने से पहले ही मार नहीं डाला था।
और खुदा न करे अस्पताल के बोर्ड वाली कहानी सच हो। आज की पीढ़ी भी वहीं सब कर रही हो, जो मेरी पीढ़ी ने किया था, यानी मां के गर्भ में बेटी की हत्या, तो यकीन मानिये, आने वाला दौर बहुत बुरा होने जा रहा है। वह दौर महिलाओं के लिए बहुत खतरनाक साबित होने वाला है। इसलिए संभलने की जरूरत है और यह मान लेने की भी जरूरत है कि आपको या आपके बेटे को बहू नहीं मिल पा रही है तो उसके लिए लड़की या उसके मां-बाप नहीं, बल्कि अस्पताल का वह बोर्ड सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। कुछ लोग कहते सुने जा रहे हैं कि पहाड़ की लड़कियां बाहर के लड़कों के साथ शादी कर रही हैं, इसलिए पहाड़ी लड़कों के लिए बहुओं का संकट पैदा हुआ है। इस गलत फहमी से बाहर आ जाइये। यदि कुछ पहाड़ी लड़कियां बाहर के लड़कों के साथ शादी कर रही हैं तो कुछ पहाड़ी लड़के भी बाहर से बहू ला रहे हैं।